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________________ ८. जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ (चेतना-पक्ष)। लेखक ने मन की विविध अवस्थाओं का चित्रण आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से बौद्ध और हिन्दू परम्परा से तुलना करते हुए किया है । रागात्मक मन बन्धन का हेतु है और वीतरागी मन मुक्ति का हेतु है । ८. जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता - ग्यारह पृष्ठों के इस निबन्ध का प्रकाशन दार्शनिक त्रैमासिक में पहले हो चुका था । लेखक के इसी विषय से सम्बन्धित अन्य लेख भी हैं, जैसे नीति के निरपेक्ष एवं सापेक्ष तत्त्व, (दार्शनिक, त्रैमासिक, अप्रैल १९७६ में प्रकाशित), जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता (मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ १९७७ में प्रकाशित) आदि । इन लेखों में लेखक ने 'सदाचार क्या है और दुराचार क्या है ? इसको लेकर नैतिकता का विविध पहलुओं से मूल्याङ्कन किया है । जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्तानुसार नैतिक मूल्यों की सापेक्षता सिद्ध करते हुए उसके निरपेक्ष पक्ष को भी प्रकाशित किया है। आचरण का बाह्यपक्ष देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील हो सकता है परन्तु आन्तरिकपक्ष सदैव अपरिवर्तनशील होता है। इसी संदर्भ में आचार के उत्सर्गमार्ग (राजमार्ग या सामान्यमार्ग) और अपवादमार्ग की आगमानुसार व्यवस्था भी दी है । वस्तुत: नैतिकता सम्बन्धी सापेक्षवादी और निरपेक्षवादी दोनों धाराएँ अपने एकान्तिक रूप में अपूर्ण हैं । यह डॉ० साहब के इन लेखों का सार है। ९. सदाचार के शाश्वत मानदण्ड - सोलह पृष्ठों का यह आलेख 'दार्शनिक त्रैमासिक' तथा 'जैनधर्म दिवाकर स्मृतिग्रन्थ' में पूर्व प्रकाशित हैं। इस पर लेखक को पाँच सौ रुपयों का पुरस्कार भी दिया गया था। लेखक ने सामाजिक परिवेश और वैयक्तिक साधना को ध्यान में रखकर जैन सदाचार के नियमों की सटीक व्याख्या इस लेख में की है । राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि को भी ध्यान में रखा है। नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता और अपरिवर्तनशीलता की भी समीक्षा की है। नैतिक संकल्प, साध्य तथा मौलिक नियम अपरिवर्तशील होते हैं परन्तु साधन परिवर्तनशील । प्रसङ्गत: पाश्चात्य विचारों की भी समीक्षा की गई है। यह आलेख वस्तुत: आठवें आलेख (नैतिकता की सापेक्षता) का पूरक है। १०. जैनधर्म का लेश्या-सिद्धान्त : एक विमर्श - सोलह पृष्ठों का यह आलेख डॉ० शान्ता जैन के ग्रन्थ में भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ है । जैन दर्शन का लेश्या सिद्धान्त आधुनिक रंग-मनोविज्ञान या रंग-चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करे (बांधे या चिपकाये) उसे लेश्या कहा जाता है । शुभ-अशुभ मनोवृत्तियों (आवेगों) की तीव्रता और मन्दता के तारतम्य भाव के आधार पर लेश्या के छह भेद किये गये हैं । ये मनोवृत्तियाँ हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। लेश्या के दो भेद भी किये जाते हैं - द्रव्यलेश्या (सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से निर्मित) तथा भावलेश्या (आत्मा का अध्यवसाय या अन्त:करण वृत्ति ) । इस तरह मनोदशाओं के आधार पर आचरणपरक वर्गीकरण लेश्याओं में किया जाता है। ११. प्रज्ञापुरुष पं० जगन्नाथ जी उपाध्याय की दृष्टि में बुद्ध व्यक्ति नहीं, प्रक्रिया - चार पृष्ठों का यह लेख पं० जगन्नाथ उपाध्याय के स्मृति ग्रन्थ में प्रकाशित है । अनात्मवादी तथा एकान्त क्षणिकवादी बौद्धदर्शन में बुद्ध, बोधि सत्व, त्रिकाय, पुनर्जन्म, निर्वाण आदि की अवधारणायें कैसे सम्भव हैं ? इन प्रश्नों का समाधान लेखक द्वय ने पं० जगन्नाथ उपाध्याय जी से प्राप्त किया। तदनुसार बुद्ध के त्रिकायों की नित्यता का अर्थ परार्थक्रियाकारित्व रूप बुद्धत्व है । बुद्ध नित्य व्यक्तित्व (An Etermal Personality)नहीं है अपितु चित्त-सन्तति या चित्तधारा की एक प्रक्रिया (AProcess) है। वस्तुत: यह लेख बौद्धदर्शन के महत्त्वपूर्ण विषय से सम्बन्धित है। इस तरह सागर जैन-विद्या भारती भाग दो के सभी लेख खोजपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण हैं । ग्यारहवां लेख छोड़कर शेष सभी जैन धर्म के प्ररिप्रेक्ष्य में लिखे गये हैं । धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र, इतिहास, आगम, मनोविज्ञान आदि की विपुल सामग्री इसमें विद्यमान है। विद्वानों और जनसामान्य दोनों के उपयोग की सामग्री इसमें निहित है। संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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