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________________ जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १३५ CHI बा का और अधिक महत्व है। वर्ष भर में वर्षावास के अन्तर्गत ही श्रमणों का एक स्थान पर सबसे लम्बा प्रवास होता है । अध्ययन चिकित्सा आदि की दृष्टि से वहाँ यथेष्ट समय मिलता है। इसलिए इन बातों का विचार बहुत आवश्यक है। धर्म-प्रसार की दृष्टि से भी क्षेत्र की गवेषणा का महत्व है। यदि किसी क्षेत्र के लोगों को अध्यात्म में रस है तो वहाँ बहत लोग धर्म-भावना से अनुप्राणित होंगे, धर्म की प्रभावना होगी। ___ आचार्य इन सब दृष्टिकोणों को आत्मसात् किये रहते हैं। (२) प्रातिहारिक अवग्रह-परिज्ञा-श्रमण अपनी आवश्यकता के अनुसार दो प्रकार की वस्तुएँ लेते हैं। प्रथम कोटि मे वे वस्तुएँ आती हैं, जो सम्पूर्णतया उपयोग में ली जाती हैं, वापिस नहीं लौटाई जाती, जैसे-अन्न, जल, औषधि आदि । दूसरी वे वस्तएं हैं. जो उपयोग में लेने के बाद वापिस जाती हैं, उन्हें प्रातिहारिक कहा जाता है। प्रातिहारिक का शाब्दिक अर्थ भी इसी प्रकार का है। पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि इस कोटि में आते हैं। आचार्य के दर्शन तथा उनसे अध्ययन आदि के निमित्त अनेक दूसरे साध भी आते रहते हैं। उनके स्वागत-सत्कार, सुविधा आदि की दृष्टि से जब जैसे अपेक्षित हों, पीठ, फलक, आसन आदि के लिए आचार्य को ध्यान रखना आवश्यक होता है। कौन वस्तु कहाँ प्राप्य है, यह ध्यान रहने पर आवश्यकता पड़ते ही शास्त्रीय विधि के अनुसार वह तत्काल प्राप्त की जा सकती है। उसके लिए अनावश्यक रूप में भटकना नहीं पड़ता है। (३) काल-सम्मान-परिज्ञा-काल के सम्मान का आशय साधुजीवनोचित क्रियाओं का समुचित समय पर अनुष्ठान करना है। ऐसा करना व्यावहारिक दृष्टि से जहाँ व्यवस्थित जीवन का परिचायक है, वहाँ आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन में इससे अन्त:स्थिरता परिव्याप्त होती है। क्रियाओं के यथाकाल अनुष्ठान के लिए काल का 'सम्मान' करना—ऐसा जो प्रयोग शास्त्र में आया है, उससे स्पष्ट है कि यथासमय धार्मिक क्रियाओं के सम्पादन का कितना अधिक महत्व रहा है। आचार्य सारे संघ के नियामक और अधिनायक होते हैं। उनके जीवन का क्षण-क्षण अन्तेवासियों एवं अनुयायियों के समक्ष आदर्श के रूप में विद्यमान रहता है । उसका उन पर अमिट प्रभाव होता है। इसलिए यथासमय सब क्रियाएँ सुव्यवस्थित रूप में संपादित करना, उस ओर अनवरत यत्नशील रहना आचार्य के लिए आवश्यक है। (४) गुरु-संपूजना-परिज्ञा-जो दीक्षा-पर्याय में अपने से ज्येष्ठ हों, उन श्रमणों का वन्दन, नमन आदि द्वारा बहुमान करने में आचार्य सदा जागरूक रहते हैं। इसे वे आवश्यक और महत्वपूर्ण समझते हैं । ऐसा करना गुरु-संपूजना-परिज्ञा है। आचार्य की यह प्रवृत्ति अन्तेवासियों को बड़ों का सम्मान करने, उनके प्रति आदर एवं श्रद्धा दिखाने की ओर प्रेरित करती है। संघ के वातावरण में इससे सौहार्द का संचार होता है। फलत: संघ विकसित और उन्नत बनता है। १. प्रतिहरणं प्रतिहार-प्रत्यर्पणम्, तमहतीति प्रातिहारिकम् । पुन: समर्पणीय संस्तारकादौ । -ज्ञाताधर्मकथा सटीक, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ५ आचार्यप्रवर श्रीआनन्दमन्थश्रान्दियन् आचार्यप्रवरआनन्द Preemwwer Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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