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________________ आचार्य प्रवख अभिनन्दन श्री आनन्दन ग्रन्थ Www डॉ. Exxxt डॉ आचार्य प्रव श्री आनन्द १३४ इतिहास और संस्कृति सारे संघ की शोभा है, उनकी पराजय सारे संघ का अपमान । अतः यह वांछनीय है कि आचार्य में वादप्रयोग सम्बन्धी विशेषताएँ, जिनका उल्लेख हुआ है, हों । जिससे उनका अपना गौरव बढ़े, संघ की महिमा फैले । अभिन्दन अन्थादन संग्रहपरिक्षा सम्पदा जैन श्रमण के जीवन में परिग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है । वह सर्वथा निष्परिग्रही जीवनयापन करता है । यह होने पर भी जब तक साधक सदेह है, उसे जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए कतिपय वस्तुओं की अपेक्षा रहती ही है। शास्त्रीय विधान के अनुरूप उन वस्तुओं का ग्रहण करता हुआ साधक परिग्रही नहीं बनता क्योंकि उन वस्तुओं में उसकी जरा भी मूर्च्छा या आसक्ति नहीं होती । परिग्रह का आधार मूर्च्छा या आसक्ति है । यदि अपने देह के प्रति भी साधक के मन में मूर्च्छा या आसक्ति हो जाए तो वह परिग्रह हो जाता है । आत्म-साधना मे लगे साधक का जीवन अनासक्त और अमूच्छित होता है, होना चाहिए । यही कारण है कि उस द्वारा अनिवार्य आवश्यकताओं के निर्वाह के लिए अमूच्छित एवं अनासक्त भाव से अपेक्षित पदार्थों का ग्रहण अदूषणीय है । संग्रह का अर्थ श्रमण के वैयक्तिक तथा सामष्टिक संघीय जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अवलोकन, आकलन या स्वीकार है । वस्तुओं की आवश्यकता, समीचीनता एवं सुलभता का ज्ञान संग्रहपरिज्ञा कहा जाता है। आचार्य पर संघ के संचालन, संरक्षण एवं व्यवस्था का उत्तरदायित्व होता है अतः उन्हें इस ओर जागरूक रहना अपेक्षित है कि कब किस वस्तु की आवश्यकता पड़ जाए और पूर्ति किस प्रकार सम्भव हो । इसमें जागरूकता के साथ-साथ सूझ-बूझ तथा व्यावहारिक कुशलता की भी आवश्यकता रहती है । यह आचार्य की अपनी असाधारण विशेषता है । Jain Education International संग्रहपरिज्ञा सम्पदा के चार प्रकार बताये गये हैं(१) क्षेत्र - प्रतिलेखन - परिज्ञा (३) काल - सम्मान - परिज्ञा बिहार के स्थान क्षेत्र कहे जाते हैं । जैन (१) क्षेत्र प्रतिलेखन - परिज्ञा - साधुओं के प्रवास और श्रमण वर्षा ऋतु के चार महीने एक ही स्थान पर टिकते हैं, कहीं बिहार यात्रा नहीं करते । इसे चातुर्मासिक प्रवास कहा जाता है । इसके अतिरिक्त वे जन-जन को धर्मोपदेश या अध्यात्म-प्रेरणा देने के निमित्त घूमते रहते हैं । रोग, वार्धक्य, दैहिक अशक्तता आदि अपवादों के अतिरिक्त वे कहीं भी एक मास से अधिक नहीं टिकते। (२) प्रातिहारिक अवग्रह-प्ररिज्ञा (४) गुरु - संपूजना - परिज्ञा चातुर्मासिक प्रवास के लिए कौनसा क्षेत्र कैसा है, साधु-जीवन के लिए अपेक्षित निरवद्य पदार्थ कहाँ किस रूप में प्राप्य हैं, अस्वस्थ साधुओं की चिकित्सा, पथ्य आहार आदि को सुलभता, जलवायु व निवास स्थान की अनुकूलता आदि बातों का ध्यान आचार्य को रहता है । चातुर्मासिक प्रवास में इस बात १ दशश्रुतस्कन्ध सूत्र अध्ययन ४ सूत्र १२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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