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________________ आचार्य प्रव श्री आनन्द* ग्रन्थ १३६ उपाध्याय अभिनंदन इतिहास और संस्कृति * ग्रन्थ जैनदर्शन ज्ञान और क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधृत है । संयम-मूलक आचार का परिपालन जैन साधक के जीवन का जहाँ अनिवार्य अंग है, वहाँ उसके लिए यह भी अपेक्षित है कि वह ज्ञान की आराधना में भी अपने को तन्मयता के साथ जोड़े । सदज्ञान पूर्वक आचरित क्रिया में शुद्धि की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है। जिस प्रकार ज्ञान प्रसूत क्रिया की गरिमा है, उसी प्रकार क्रियान्वित या क्रिया-परिणत ज्ञान की ही वास्तविक सार्थकता है। ज्ञान और क्रिया जहाँ पूर्व और पश्चिम की तरह भिन्न दिशाओं में जाते हैं, वहाँ जीवन का ध्येय सघता नहीं । अनुष्ठान द्वारा इन दोनों पक्षों में सामंजस्य उत्पन्न कर जिस गति से साधक साधना-पथ पर अग्रसर होगा, साध्य को आत्मसात् करने में वह उतना ही अधिक सफल बनेगा । जैन संघ के पदों में आचार्य के बाद दूसरा पद उपाध्याय का है । इस पद का सम्बन्ध मुख्यतः अध्ययन से है, उपाध्याय श्रमणों को सूत्र वाचना देते हैं । कहा गया है— बारसंगो जिणक्खाओ, सज्जओ कहिओ बुह । त उवइस्संति जम्हा, उवज्झया तेण वुच्चंति || जिन प्रतिपादित द्वादशांगरूप स्वाध्याय --- सूत्र - वाङ् मय ज्ञानियों द्वारा कथित वर्णित या प्रथित किया गया है । जो उसका उपदेश करते हैं, वे (उपदेशक श्रमण ) उपाध्याय कहे जाते हैं । यहाँ सूत्र वाङ् मय का उपदेश करने का आशय आगमों की सूत्र वाचना देना है । स्थानांग वृत्ति में भी उपाध्याय का सूत्रदाता' (सूत्रवाचनादाता) के रूप में उल्लेख हुआ है । आचार्य की सम्पदाओं के वर्णन प्रसंग में यह बतलाया गया है कि आगमों की अर्थ- वाचना आचार्य देते हैं । यहाँ जो उपाध्याय द्वारा स्वाध्यायोपदेश या सूत्रवाचना देने का उल्लेख है, उसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता, स्पष्टता, विशदता, अपरिवर्त्यता तथा स्थिरता बनाये रखने के हेतु उपाध्याय पारम्परिक तथा आज की भाषा में भाषा वैज्ञानिक आदि दृष्टियों से अन्तेवासी श्रमणों को मूल पाठ का सांगोपांग शिक्षण देते हैं । Jain Education International अनुयोगद्वार सूत्र में 'आगमत: द्रव्यावश्यक, के सन्दर्भ में पठन या वाचन का विवेचन करते हुए तत्सम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रतीत होता है कि पाठ की एक अक्षुण्ण तथा स्थिर परम्परा जैन श्रमणों में रही है । आगम-पाठ को यथावत् बनाये रखने में इससे बड़ी सहायता मिली है । आगम-गाथाओं का उच्चारण कर देना मात्र पाठ या वाचन नहीं है । अनुयोगद्वार में पद के शिक्षित, जित, स्थित, मित, परिजित, नामसम, घोषसम, अहीनाक्षर, अत्यक्षर, अव्याविद्धसर, अस्खलित, १. भगवती सूत्र १. १. १ मंगलाचरण वृत्ति । २. उपाध्याय : सूत्रदाता । स्थानांग सूत्र ३. ४. ३२३ वृत्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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