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________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन ३०५ दर्शनावरण और अन्तराय का युगपद् क्षय होता है। जब दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों के क्षय में काल का भेद नहीं होता है तब यह किस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रथम केवलदर्शन होता है फिर केवलज्ञान। इस समस्या के समाधान के लिए कोई यह माने कि दोनों का युगपद् सद्भाव है तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। इस समस्या का सबसे सरल व तर्कसंगत समाधान यह है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता । दर्शन और ज्ञान को पृथक्-पृथक् मानने से एक समस्या और उत्पन्न होती है। यदि केवली एक ही क्षण में सभी कुछ जान लेता है तो उसे सदा के लिए सब कुछ जानते रहना चाहिए। यदि उसका ज्ञान सदा पूर्ण नहीं है तो वह सर्वज्ञ कैसे? १ यदि उसका ज्ञान सदैव पूर्ण है तो क्रम और अक्रम का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । वह सदा एक रूप है। वहाँ पर दर्शन और ज्ञान में किसी भी प्रकार का कोई अन्तर नहीं है । ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प है। इस प्रकार का भेद । आवरण रूप कर्म के क्षय के पश्चात् नहीं रहता।६२ जहाँ पर उपयोग की अपूर्णता है वहीं पर सविकल्प और निर्विकल्प का भेद होता है, पूर्ण उपयोग होने पर किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता । एक समस्या और वह यह है कि ज्ञान हमेशा दर्शनपूर्वक होता है किन्तु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । ३ केवली को जब एक बार सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब फिर दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता, एतदर्थ ज्ञान और दर्शन का क्रमभाव नहीं घट सकता। दिगम्बर परम्परा में केवल युगपद् पक्ष ही मान्य रहा है। श्वेताम्बर परम्परा में इसकी क्रम, युगपद् और अभेद ये तीन धारायें बनीं। इन तीनों धाराओं का विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के महान् ताकिक यशोविजय जी ने नयदृष्टि से समन्वय किया है। ऋजुसुत्रनय की दृष्टि से क्रमिक पक्ष संगत है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। प्रथम समय का ज्ञान कारण है और द्वितीय समय का दर्शन उसका कार्य है । ज्ञान और दर्शन में कारण और कार्य का क्रम है। व्यवहारनय भेदस्पर्शी है। उसकी दृष्टि से युगपत् पक्ष भी संगत है। संग्रहनय अभेद-स्पर्शी है। उसकी दृष्टि से अभेद पक्ष भी संगत है। तर्कदृष्टि से देखने पर इन तीन धाराओं में अभेद पक्ष अधिक युक्तिसंगत लगता है। दूसरा दृष्टिकोण आगमिक है, उसका प्रतिपादन स्वभावस्पर्शी है। प्रथम समय में भिन्नतागत अभिन्नता को जानना स्वभावसिद्ध है। ज्ञान का स्वभाव ही इस प्रकार है। भेद में अभेद और अभेद में भेद समाया हुआ है । तथापि भेदप्रधान और अभेदप्रधान दर्शन का समय एक नहीं है। उपसंहार इस प्रकार आगमयुग से लेकर दार्शनिक युग तक ज्ञानवाद पर गहराई से चिन्तन किया गया है। यदि उस पर विस्तार के साथ लिखा जाय तो एक विराट्काय स्वतन्त्र ग्रंथ तैयार हो सकता है, पर संक्षेप में ही प्रस्तुत निबन्ध में प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रबुद्ध पाठकों को यह परिज्ञात हो सके कि जैन दार्शनिकों ने ज्ञानवाद पर कितने स्पष्ट विचार प्रस्तुत किये हैं। ६१ सन्मति प्रकरण १११० १२ सन्मति प्रकरण २०२२ ६३ ज्ञानविन्दु POORNA आचामप्रकार आचार्यप्रवर अभिनय आनन्न्याश्रीआनन्द अन्य ameramania Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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