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________________ श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द अन्थ अभिन Jo → श्रीदेवकुमार जैन, सि. आचार्य, दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न [ अनेक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक ] स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन मनुष्य एक विचारशील प्राणी है। वह अपने जन्मकाल से ही स्व-अस्तित्व के बारे में विचार करता आया है । इस विचार के साथ ही दर्शन का प्रादुर्भाव हो जाता है। भले ही हम उसे दर्शन के नाम से सम्बोधित करें अथवा अन्य किसी नाम से सम्बोधित करें, लेकिन यह सत्य है कि विचार करने के साथ ही दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश हो जाता है। यही नहीं, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि जीवन से सम्बन्धित सभी प्रवृत्तियों में दर्शन का अस्तित्व तिल में तेल की तरह विद्यमान है । दर्शन के अस्तित्व की अस्वीकृति का सिद्धान्त भी प्रकारान्तर से दर्शन का परिणाम है । घट-दर्शन इत्यादि व्यवहार में चाक्षुषज्ञान अर्थ में, आत्म-दर्शन इत्यादि व्यवहार में साक्षात्कार अर्थ में और न्याय दर्शन, सांख्यदर्शन इत्यादि व्यवहार में तत्वचिन्तन की विचारसरणी अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग देखा जाता है । उनमें से प्रस्तावित प्रसंग में दर्शन शब्द का अर्थ तत्वचिन्तन की विचारसरणी ग्रहण किया गया है। इस विचार सरणी में दर्शन का अभिधेय सत्य का साक्षात्कार करना है । सत्य वह है जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है । साक्षात्कार का अभिप्राय है जिसमें भ्रम, सन्देह, मतभेद या विरोध को अवकाश न हो । यद्यपि सभी दर्शन और उनके प्रवर्तक सत्य का ही समर्थन करते हैं और अहर्निश सत्यान्वेषण की साधना एवं निरूपण में तल्लीन रहते हैं, तथापि सत्यान्वेषण और सत्य निरूपण की पद्धति सर्वत्र एक सी नहीं होती है । सत्य प्रकाशन की पद्धति सबकी अपनी-अपनी है। बौद्ध दर्शन में जिस प्रणाली द्वारा सत्य का निरूपण किया गया है, उससे विपरीत वेदान्त दर्शन की प्रणाली है । इसी प्रकार न्याय, सांख्य आदि-आदि दर्शनों की सत्य निरूपण की पद्धति अपनी-अपनी और भिन्न-भिन्न है । उनमें सत्य निरूपण हेतु जैन दर्शन की प्रणाली अपनी और अनूठी ही है । वह विभिन्न विचारकों का विरोध न कर उदारता का परिचय देते हुए उनके आंशिक सत्यों को यथा स्थान सत्य मानती है । जैन दर्शन की इसी प्रणाली को स्याद्वाद - सिद्धान्त कहते हैं । जैन दर्शन की उदारता का कारण जैन- दर्शन ने विचार एवं जीवन सम्बन्धी अपनी व्यवस्थाओं के विकास में कभी भी किसी प्रकार का संकुचित दृष्टिकोण नहीं अपनाया । उसकी वैचारिक भूमिका सदैव उदात्त रही है । वह समन्वय के दृष्टिकोण को अपनाने एवं सही तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिये आग्रहशील रहा है । इस आग्रह में संघर्ष या खंडन का स्वर नहीं, अपितु उस प्रणाली को प्रस्तुत करने का लक्ष्य रखा गया है। जो सयुक्तिक और जीवन-स्पर्शी है । यही कारण है कि जैन दर्शन द्वारा तत्व-निरूपण के लिये स्याद्वाद सिद्धान्त जैसी निर्दोष प्रणाली को स्वीकार किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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