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________________ अभिनन्दन आपायप्रवर अभिनंदन आनन्द अन्य T h V 九 SUNTY NE Jain Education International धर्म और दर्शन प्रज्ञापना में एक संवाद है । गौतम भगवान् से पूछते हैं - हे भगवन् ! केवली आकार, हेतु, उपमा, दृष्टान्त, वर्ण, संस्थान, प्रमाण और प्रत्यावतारों के द्वारा इस रत्नप्रभा पृथ्वी को जिस समय जानता है उस समय देखता नहीं है और जिस समय देखता है उस समय जानता है ? ३०४ भगवान् हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। - गौतम - हे भगवन् ! केवली आकार आदि के द्वारा इस जानता है उस समय देखता नहीं है, और जिस समय देखता है उस क्या कारण ? भगवान् हे गौतम! उसका ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार है । अतः वह जिस समय जानता है उस समय देखता नहीं है और जिस समय देखता है उस समय जानता नहीं है । इस प्रकार अधः सप्तमी पृथ्वी तक सौधर्म कल्प से लेकर ईषत्प्राग्भार पृथ्वी तक तथा परमाणु पुद्गल से अनन्तप्रदेश स्कंध तक जानने का और देखने का क्रम समझना चाहिए। 5४ पृथ्वी को जिस समय रत्नप्रभा समय जानता नहीं है । इसका ८ आवश्यक निर्मुक्ति विशेषावश्यक भाष्य आदि में भी कहा गया है कि केवली के भी दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते । श्वेताम्बर परम्परा के आगम इस सम्बन्ध में एक मत हैं । वे केवली के दर्शन और ज्ञान को युगपद् नहीं मानते। दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवलदर्शन और केवलज्ञान युगपद् होते हैं । इस विषय में सभी दिगम्बर आचार्य एकमत हैं। 50 उमास्वाति का भी यही मत रहा है कि मति श्रुत आदि में उपयोग क्रम से होता है युगपद् नहीं । केवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपद् होता है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट लिखा है कि जैसे सूर्य में प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं । ८८ तीसरी परम्परा चतुर्थ शताब्दी के महान् दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की है। उन्होंने सन्मति प्रकरण में लिखा है कि मनःपर्याय तक तो ज्ञान और दर्शन का भेद सिद्ध कर सकते हैं किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन में भेद सिद्ध करना सम्भव नहीं है । ० दर्शनावरण और ज्ञानावरण का युगपद् क्षय होता है । उस क्षय से होने वाले उपयोग में "यह प्रथम होता है, यह बाद में होता है" इस प्रकार का भेद किस प्रकार किया जा सकता है। कैवल्य की प्राप्ति जिस समय होती है उस समय सर्वप्रथम मोहनीय कर्म का क्षय होता है । उसके पश्चात् ज्ञानावरण, ८४ प्रज्ञापना पद ३० । सू ३१६ | पृ० ५३१ ८५ आवश्यक निर्युक्ति गा० ६७७-९७६ ८६ विशेषावश्यक भाष्य ८७ (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड ७३० (ख) द्रव्यसंग्रह ४४ ८८ मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपद् । सम्भिन्न ज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपद् भवति । तत्वार्थसूत्रभाष्य ११३१ ८६ नियमसार १५६ १० मणपज्जवणाणतो णाणस्स व दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाणं ॥ For Private & Personal Use Only सम्मतिप्रकरण २३ www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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