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________________ शुभकामना Jain Education International ( २४ ) संपादक - नवभारत टाइम्स १० जनवरी, १६७५ प्रिय महोदय आपका पत्र मिला । यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि श्री आनन्दऋषि का अभिनन्दन किया जा रहा है । वास्तव में यह बड़े गौरव की बात है कि समाज ऐसे मनीषियों-त्यागियों का अभिनन्दन करें जिन्होंने निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा की हो। मेरी ओर से भी महाराज श्री का अभिनन्दन स्वीकार करें। - अक्षय कुमारजन डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए० पी-एच० डी० निर्देशक : जैन साहित्य शोध संस्थान, जयपुर आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज श्रमण जगत के प्रकाशमान पुंज हैं । भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं अनेकान्तवाद के वे प्रतीक हैं। उन्होंने अपना समस्त जीवन आत्मचिन्तन के अतिरिक्त देश एवं समाज में समर्पित कर रखा है | आचार्य श्री का जीवन एक खुली पुस्तक के समान है । साहित्य साधना का उन्होंने व्रत ले रखा है तथा अब तक इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । मैं आचार्य प्रवर के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ । डा० हरिदत्त शास्त्री एम० ए० पी-एच० डी० व्याकरण वेदान्ताचार्य आचार्यवर्यो जिनपुण्यचर्य:, शक्त्युच्चयो दीनमहासमर्थः । सोsप्राकृतैः संगमनेरजयः, प्रतीक्ष्य आनन्दमहर्षि वर्णः ॥ १॥ महात्मनां वाचिबलं वदन्ति, राज्ञा बलं सैन्यभटे गदन्ति । दन्ताबलाः संहननाप्तशौर्याः, पाराक आनन्द महर्षि वर्णः ॥ २॥ आसंसारोपचित्तं सदसत्कर्म बन्धाश्रितानाम्, आधि व्याधि प्रजनकरण क्षुत्पिपासादितानाम् । मिथ्याज्ञानप्रबल तमसा नाथ! बांधीकृतानाम्, त्वं नस्त्राता भव करुणयाऽऽनन्द ! तूर्णं महर्षे ॥ ३॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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