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________________ minMAAMAvAAMRA SANप्रवर अभिनिसायप्रवर अभिमान श्रामानन्दमय श्रीआन आभनन्दन [वराई से बचकर भलाई में शक्ति एवं धन का नियोजन करने की प्रेरणा देने वाला प्रवचन] ४ मानव जीवन का सदुपयोग अभी आपने एक भजन सुना--जिसमें कहा गया है--- जय बोलो महावीर स्वामी की, घट-घट के अन्तर्यामी की। भक्त लोग घट-घट के अन्तर्यामी की जय बोलते हैं, लेकिन वह जय केवल उनके अन्तर्यामी होने से ही नहीं बोली जाती। इसका कारण और भी है, जो आगे बताया गया है जो पाप मिटाने आया था...। बस, यही बात उनकी जय बोलने का कारण है। संसार में महानतम पुरुप वही है जो पापों का नाश करने का प्रयत्न करता है। भगवान महावीर स्वामी ने भी अपने पापों का नाश तो किया ही साथ में संसार के अन्य प्राणियों को भी अपने पापों को नष्ट करने की प्रेरणा दी। प्रथम पाप पार वैसे अठारह प्रकार के हैं, पर उनमें प्रथम और सर्व-शिरोमणि है हिंसा । हिंसा घोर पाप है। हिंसक व्यक्ति जन्म-जन्मान्तरों तक इसके महादुखदायी परिणामों को भुगतता है-हिसैव दृर्गतेारम् अर्थात् हिंसा ही दुर्गति का द्वार है। अहिंसा प्रकृति का अविभाज्य अंग है और प्राणिमात्र का नैसगिक धर्म है, क्योंकि संमार का प्रत्येक जीव स्वयं तनिक-सा भी दुःख बरदास्त नहीं कर सकता, अतः औरों को कष्ट देने का भी अधिकार नहीं रखता। इसीलिए संसार के सभी धर्म हिंसा का निषेध करते हैं। महाभारत में कहा है सर्वे वेदा न तत्कुर्य: सर्वे यज्ञाश्च भारत ! सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात् प्राणिनां दया । अर्थात् प्राणियों की दया जो फल देती है, वह चारों वेद भी नहीं दे सकते और तीर्थों के स्नान तथा वंदन भी वह फल नहीं दे सकते । कहने का अभिप्राय यही है कि जो धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ लेते हैं, वे अन्य समस्त शुभ क्रियाओं को करने से पहले हिंसा का त्याग करते हैं और अहिंसा को ग्रहण करते हैं। हिमा का त्याग भी केवल शरीर से नहीं, अपितु मन और वचन से भी करते हैं। वास्तव में अहिंसा का पालन करना मनुष्य मात्र का धर्म है तथा प्रत्येक जीव को पीड़ा से बचाना तथा उसकी प्राण रक्षा करना इन्सानियत का तकाजा है। पर खेद की बात है कि आज के युग में अपने प्राण देकर दूसरों की रक्षा करना तो दूर, दूसरों के प्राण लेकर अपने शरीर को अधिकाधिक पृष्ट करना ही जीवन का ध्येय बन गया है। लोगों की धारणा बन गई है कि अगर अण्डे व मांस न खाया जाये, मछली का तेल न पीया जाये तो शरीर निर्बल हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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