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________________ आचारः परमो धर्मः १५७ या तो पूर्वोक्त कथन का सार संक्षेप में इस प्रकार है द्वादशांग का सार है आचार । आचार का सार अंगुहो यानी आज्ञा के पीछे चलना। उसका भी मार-प्ररूपणा यानी परोपदेश । प्ररूपणा का सार-चारित्र का पालन करना। चारित्र का सार-निर्वाण तथा निर्वाण का सार-अव्वावाहं जिणाहुत्ति यानी जिनेश्वर भगवान ने फरमाया है कि अगर निर्वाण प्राप्त करना है तो पहले आचार को ग्रहण करो, फिर भगवान की आज्ञा के पीछे चलो, बाद में प्ररूपणा से औरों को सन्मार्ग पर लाओ, फिर चारित्र का पालन करो जिससे निर्वाण प्राप्त हो । निर्वाण याने अक्षय शान्ति । आत्मा उस स्थान पर पहुँच जाती है जहाँ किसी भी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती। बाधा इसलिए नहीं होती कि शरीर नहीं होता और पीड़ा इसलिए नहीं होती, क्योंकि कर्म नहीं होता। तो बन्धुओ समस्त पीड़ाओं एवं बाधाओं से रहित, अक्षय शांति और सुख प्रदान करने वाले ऐसे । अपूर्व स्थान पर पहुँचने के लिए उत्कृष्ट चारित्र ही एकमात्र साधन है। अगर हम शुद्ध चारित्र का पालन करते हैं तो हमारे दर्शन और ज्ञान का भी सम्यक उपयोग हो सकता है। श्रद्धा का कार्य आपको धर्म पर विश्वास रखना तथा ज्ञान का कार्य आपको मुक्ति के मार्ग की पहचान कराना है, किन्तु चारित्र का काम है आपको उस मार्ग पर चलाना । आप जानते हैं कि कहीं भी जाने वाले मार्ग पर विश्वास रखना और उस मार्ग की पहचान हो जाना ही काफी नहीं होता। सबसे जरूरी होता है उस मार्ग पर चलना। यही हाल मोक्ष मार्ग का है। इस पर श्रद्धा रखना और इसका ज्ञान होना ही मुमुक्षु के लिए काफी नहीं है, उसके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है उस मार्ग पर चलना । और चलने का दूसरा नाम ही चारित्र है। आशा है चारित्र के महत्त्व को पूर्णतया हृदयंगम करते हुए आप अपने जीवन को दृढ़ एवं शुद्ध चारित्र से अलंकृत करेंगे तथा अपनी मंजिल के समीप पहुँचने का प्रयत्न करेंगे। -- HER पिया आनन्द-वचनामृत0 मरिता का मधुर जल भी संग्रहशील सागर के पास पहुँचकर खारा बन जाता है। क्यों ? और फिर पुनः सरिता में आते ही वह मधुर बन जाता है। क्यों ? सरिता-देती है, सागर-लेता है। देने वाला सदा मधुर रहता है, लेने वाला कडुवा बन जाता है। सरल बाण सीधा अपने लक्ष्य तक पहुंचता है, किन्तु वक्र धनुष वहीं का वहीं पड़ा रहता है । सरलता लक्ष्य पर पहुंचा देती है वक्रता भटकाती है । आपा प्रवभिभावार्यप्रवर अभ श्रीआनन्द . आनन् ५१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org AnamaARARIANIMJABAMANANDMAJABARRIAMANAuseuineasainaSAIJANJANAMANAINAIAAIMINAImanasammarAm ASALALAAAAAAA Jain Education International
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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