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________________ मानव जीवन का सदुपयोग १५६ गया उन जिह्वालोलुप व्यक्तियों की यह धारणा निस्सार और गलत है । बलवान बनने के लिए मांसाहार की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी युग में अनेकों व्यक्ति मांसाहार न करके भी मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक बलवान साबित होते हैं। पिछले दोनों महायुद्धों में यह प्रमाणित हो गया है। उन युद्धों में मांसाहारी सैनिक भीरू तो साबित हुए ही, वे अल्प परिश्रम करके भी निराभिषभोजियों की अपेक्षा जल्द थक जाने वाले पाये गये हैं। गांधी जी दृढविश्वास पूर्वक कहते थे-'अहिसा प्रचण्ड शस्त्र है, उसकी शक्ति असीम है । वह पुरुष की शोभा, उसका सर्वस्व और परम पूरुषार्थ है। अहिंसा शुष्क, नीरस और जड़ पदार्थ नहीं है, आत्मा का विशेष चैतन्य गण है। अहिंसा सत्य का प्राण है, उसका अर्थ है ईश्वर पर भरोसा करना। अहिंसक स्वयं कुछ नहीं करता, उसका प्रेरक ईश्वर होता है। मैं तो शुरू से ही यह मानता आया हूँ कि अहिंसा ही धर्म है और मानवता की कसौटी है।' अनेक कुतर्क करने वाले व्यक्ति कहते हैं कि कई शास्त्रों में मांसाहार का विधान है। उनका कथन भ्रमपूर्ण है। प्रथम तो जिस शास्त्र में मांसाहार का विधान है, वह शास्त्र ही नहीं कहला सकता । शास्त्र केवल उसी को कहा जा सकता है जो मानव को कुमार्ग पर जाने से रोके । मांस-भक्षण जैसी बुराई को प्रोत्साहन देने वाला शास्त्र कैसे माना जा सकता है ? आहार का प्रयोजन आहार का वास्तविक प्रयोजन केवल शरीरयात्रा का निर्वाह करना ही है। प्राणिमात्र को आहार करना पड़ता है। शरीर के प्रति सम्पूर्ण ममता का त्याग करने वाले मुनि और तपस्वी भी आहार करते हैं, क्योंकि उसके बिना शरीर नहीं चलता और उस स्थिति में आत्मसाधना होना सम्भव नहीं होता । किन्तु आत्म-कल्याण का उद्देश्य छोड़कर केवल शरीर की पुष्टि और अपनी जिह्वातृप्ति को ही प्रयोजन मानकर जो भक्ष्याभक्ष्य का विचार किये बिना अपने उदर को नाना प्रकार के पदार्थों से भरते रहते हैं, उनके समान मुर्ख और अज्ञानी कौन होगा? मांस-मदिरा आदि नाना प्रकार के अभक्षय-भक्ष्य से महान् पाप कर्मों के बंधन का कारण बनने वाला यह परिपुष्ट शरीर क्या उनके साथ जायेगा? नहीं इसीलिए महापुरुष बार-बार जीव को बोध देते हैं 'प्रस्थाने तु पदान्तरेऽपि भवता सार्द्ध न तद्यास्यति ।' अरे आत्मन् ! जब तू परलोक में जायेगा, उस समय में यह शरीर और अन्य भौतिक पदार्थ तेरे साथ नहीं जायेंगे । अतः इनके द्वारा जितनी ही परहित साधना कर सके, उतना समय रहते कर ले, अन्यथा पछताना पड़ेगा। पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने तन की निस्सारता बताते हुए कहा है तन है असार नर कीजिये विचार मन, पिंजर है हाड़ ताप चरम जो मढ़ाना है। दुरगंध खाना तू तो मानता है मेरा मेरा, अन्त में दगादार तन जान दुखदाना है। मांगत है खाना नहीं देवे तो हैरान कर, __ खावत अनेक चीज तो है न अघाना है। अमीरिख कहे तन काचा कुंभ जैसे जान, रंग चग देख नर भया क्यों दिवाना है। कई व्यक्ति कहते हैं, जब शरीर का कोई मूल्य नहीं है तो प्राणों को ही किस लिए धारण करना? अरे भाई ! प्राण रहेंगे तभी तो तत्त्वों का चिंतन हो सकेगा? जीव क्या है, अजीव क्या है ? आदि इन T आचार्य प्राआनन्दा आगारप्रवर अनिल श्रीआइन्द minimovies Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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