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________________ a urunsapana..MADANAPle . ka. ..... YM आचार्यप्रवभिगन श्रीआदE VIURI 1964 ग्रन्थ श्रीआनन्दपादन आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इस गाथा के बाद आगे की गाथा में और कहा गया है सारो परूवणाए चरणं तस्स विय होइ निव्वाणं । निव्वाणस्स उ सारो अव्वावाहं जिणा हंति ।। गाथा में पुनः प्रश्न किया गया है कि-प्ररूपणा का सार वया है ? उत्तर दिया गया है--चरण । अर्थात् आचरण करना । उत्तर यथार्थ है कि हम जिस बात की प्ररूपणा करें यानी जिस कार्य को करने का औरों को उपदेश दें, पहले स्वयं भी उसका पालन करे। क्योंकि 'परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषाम् सुकर नृणाम् ।' दूसरों को उपदेश देना और उनके समक्ष अपने पांडित्य का प्रदर्शन करना सरल है, पर उसके अनुसार हमारा स्वयं का आचरण भी पहले होना चाहिए, तभी लोगों पर हमारी बात का प्रभाव पड़ सकता है। सन्त मुनिराजों की शिक्षाओं का प्रभाव लोगों पर जल्दी क्यों पड़ता है ? इसलिए कि वे जिस कार्य को जनता से कराना चाहते हैं, पहले स्वयं करते हैं। अगर वे ऐसा न करें तो लोग उनके आदेशों को नहीं मान सकते। आप स्वयं भी यह महसूस करते होंगे कि अगर हम रात्रि को भोजन करें और आपको रात्रिभोजन करने का त्याग करायें तो आप मानेंगे क्या? इसी प्रकार अगर हम बीड़ी, सिगरेट या मदिरा का सेवन करते रहें और आपसे उसे छोड़ने को कहें तो आप उन्हें छोड़ेंगे क्या? नहीं। तो बन्धुओ। प्ररूपणा करने के लिए पहले स्वयं क्रिया करनी पड़ेगी । इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है-प्ररूपणा का सार स्वयं आचरण करना है। धर्म के तीन अंग हैं-सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र । जीवन में दर्शन अर्थात् श्रद्धा का होना आवश्यक है, ज्ञान का होना भी अनिवार्य है, किन्तु उन दोनों को क्रियात्मक रूप देने के लिए चारित्र या आचरण का होना तो श्रद्धा व ज्ञान की अपेक्षा भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। केवल श्रद्धा और ज्ञान से क्या हो सकता है, जबकि उनका कोई उपयोग ही न किया जाये । संत तुकाराम महाराज ने कहा है 'बोलालाच भात बोलाचीच कढ़ी, खाऊँनियां तृप्त कोण झाला?' तात्पर्य यह है कि आपने लोगों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। समय पर पंगत खाने के लिए बैठ भी गई। किन्तु आपके पास खाद्य वस्तु कोई भी तैयार नहीं है और आप उन व्यक्तियों के सामने घूम-घूम कर कहते हैं-'लीजिये साहब ! चावल लीजिए, कढी लीजिए।' लेकिन बर्तन आपका खाली है और आप केवल जबान से ही कढ़ी और चावल परोस रहे हैं तो बताइये आपके बोलते रहने मात्र से ही क्या भोजन करने वाले तृप्त हो जायेंगे? नहीं। तो जिस प्रकार कढ़ी और भात के उच्चारण मात्र से भोजन करने वालों के पेट नहीं भर सकते, उसी प्रकार हृदय में श्रद्धा और मस्तिष्क में ज्ञान होने मात्र से ही उनका लाभ आत्मकल्याण के रूप में हासिल नहीं हो सकता, जब तक कि उन्हें आचरण में न लाया जाये । गाथा में आगे पूछा है-उसका भी सार क्या है ? आचरण का सार क्या है ? तो उत्तर में कहा है'निव्वाणं ।' निव्वाणं यानी निर्वाण । अगर व्यक्ति शुद्ध चारित्र का पालन करता है तो निर्वाण की प्राप्ति होती है । कहा भी है 'भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुब्वए कम्मई दिवं ।' भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती सदाचारी है, वह दिव्य गति को प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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