SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगप्रवभिआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा ग्रन्थ १२२ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सर्वसम्मति से उनके आचार्य चुने गये तो मुझे इस संवाद से अत्यधिक प्रसन्नता हई । मेरा यह विश्वास तब और भी सुदृढ़ हो गया कि आनन्दऋषि जी महाराज का व्यक्तित्व श्रमण संगठन की दिशा में अत्यधिक प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है । पाँच सम्प्रदायों के विलीनीकरण एवं उसके कुशल नेतृत्व के कारण जो साहसपूर्ण आदर्श उस समय प्रस्तुत हुआ, उसकी ख्याति स्थानकवासी समाज के ओर-छोर तक व्याप्त हो गई और समाज के शुभचिन्तकों की दृष्टि इस उदीयमान व्यक्तित्व पर केन्द्रित हो गई। सादड़ी-सम्मेलन से कुछ समय पूर्व भक्तिकेन्द्र नाथद्वारा में हम पुनः मिले और संघ-क्य की दिशा में चितन व मंत्रणा प्रारम्भ हई, उस समय आपके स्पष्ट व उदार विचारों का जो संबल मिला उससे सादड़ी-सम्मेलन की एकता की सुदृढ़ भूमिका तैयार हुई। सादड़ी-सम्मेलन के अवसर पर मैंने देखा कि साथी मुनियों के मन में कभी-कभी उलझन व आशंकायें भी खड़ी हो रही थीं, उस समय वातावरण को शान्त एवं अनुकूल बनाने में आचार्य श्री जी ने जो योग दिया वह सदा स्मरणीय रहेगा। उनकी सेवाओं से प्रभावित होकर ही समाज ने उन्हें सर्वसम्मति से नवगठित श्रमणसंघ का प्रथम प्रधानमन्त्री चुना और मैं विश्वास के साथ यह कह सकता हूँ कि श्रमणसंघ के अनुशासन, विकास एवं गौरव की दृष्टि से उनकी सेवाएं बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुईं। अपनी कर्तव्यनिष्ठा एवं निष्पक्ष निर्णायक वृत्ति के बल पर सम्पूर्ण समाज का विश्वास उन्हें प्राप्त हुआ और इस विश्वास की परिणति देखने को मिली। श्रमण संघ के श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के स्वर्गारोहण के बाद समस्त समाज ने एक स्वर से आपको अपना आचार्य निर्वाचित किया । __ आचार्यश्री जी की शान्ति, गम्भीरता एवं दीर्घकालीन मंथन के बाद निर्णय लेने की वृत्ति से संभवतः कुछ व्यक्ति नाराज भी हों और इसे दीर्घकारिता के रूप में भी देखते हों पर मैं इसे तो आचार्य का विशिष्ट गुण मानता हूँ । जहाँ विशाल संघ का दायित्व होता है वहाँ बहुत ही गहरा चिन्तन और परिस्थितियों का सूक्ष्म आकलन होना ही चाहिए अन्यथा जल्दबाजी में किये गये निर्णय उथले हुए छिछले स्तर के हो जाते हैं, जिनका कभी घातक परिणाम भी आ सकता है, इसलिए मेरा स्वयं का यह मत है कि निर्णय में देर भले हो, पर वह सही होना चाहिए। और इसलिए आचार्यश्री की गम्भीरता और चिन्तन-शीलता को यदि कोई शीघ्रताप्रिय व्यक्ति दीर्घकारिता कहता है तो मैं उसे दोष के रूप में नहीं किन्तु विशिष्ट गुण के रूप में देखता हूँ। आचार्यश्री जी का जैसा नाम है, तदनुरूप ही वे आनन्द की मच्ची प्रतिमूर्ति हैं। प्रसन्नता और ओजस्विता जब देखो तब उनके मुखमण्डल पर खेलती रहती है, मैंने बहुत ही निकटता से अनुभव किया है, और उनके जीवन में सहज सरलता, मृदुता की धारा सतत प्रवाहित होती रहती है, किसी भी स्थिति में वे विक्षुब्ध नहीं होते । व्यर्थ के प्रपंचों से दूर रहकर सब के साथ समानता और अपनत्व का व्यवहार उनके शासन को अनुशासन में परिवर्तित कर देता है। उनके कुशल नेतृत्व में श्रमणसंघ अपने उज्ज्वल और गौरव एवं वृद्धि-समृद्धि के द्वारा विश्वक्षितिज पर चमकता रहे एवं उनकी कीर्ति दिग्दिगंत में गंजती रहे, यही मंगल कामना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy