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________________ उपाध्याय श्री अमरमुनि [ भारतीय धर्म, दर्शन एवं संस्कृति के मूर्धन्य मनीषी । प्रबुद्ध चिंतक, विचारक एवं वाग्मी । शताधिक पुस्तकों के लेखक ] श्रमण संघ के स्वर्णकंकण की एक दीप्तिमान मणि - श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को स्वर्णकंकण की उपमा दी जाय तो निश्चित ही आचार्यपाद आनन्दऋषि जी महाराज उस स्वर्णकंकण में जटित सर्वाधिक दीप्तिमान तेजस्वी मणि के रूप में देखे जा सकते हैं । आचार्यश्री जी के सरल, विनम्र एवं निर्मल व्यक्तित्व की शुभ आभा ने न केवल उस मणि के अपने वैयक्तिक गौरव को ही बढ़ाया है, अपितु उससे स्वर्णकंकण भी निश्चित रूप से गौरव मंडित हुआ है, यह आज का तटस्थ दर्शक विश्वास पूर्वक कह सकता है । आचार्यश्री जी का प्रथम साक्षात्कार मैंने आज से पैंतीस वर्ष वि० सं० १९६० में प्रथम अजमेर मुनि सम्मेलन के अवसर पर किया था। अजमेर सम्मेलन की स्मृतियाँ आज भी जिनके स्मृतिकोष में सुरक्षित हैं वे उसे अभूतपूर्व ही मानते हैं, संघीय एकता की निष्ठा, स्फूर्ति एवं जागृति का जो प्रथम दर्शन उस सम्मेलन में हुआ, वह स्थानकवासी समाज के इतिहास में एकता की पहली चेतना थी, ऐसा मुझे आज भी प्रतिभासित होता है । जब समाज में अभ्युदय एवं विकास की शुभ घड़ी आती है तो उसका कण-कण स्फूर्तिमान हो उठता है, उसकी सहस्रों आँखें एक ही चरम ध्येय को देखती हैं, उसके हजारों हजार चरण एक ही मंजिल की ओर बढ़ने लगते हैं । उस शुभ घड़ी को पहली पल के रूप में मैंने इस सम्मेलन की फलश्रुति को स्वीकार किया - ऐसा याद है । जहाँ तक मेरी स्मृति काम करती है, मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि उस सम्मेलन के तरुणवर्ग में यदि कोई सर्वाधिक प्रभावशाली, आकर्षक एवं प्राणवान् व्यक्तित्व के धनी थे तो वे थे उस समय के युवाचार्य श्री आनन्दऋषि जी । आचार्यश्री जी उस समय अपने ऋषि-सम्प्रदाय के युवाचार्य थे और वे विशिष्ट प्रतिनिधि के रूप में सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे । उनका दीप्तिमान भव्य ललाट, तेजस्वी मुखमुद्रा एवं स्नेह तथा विनम्रता के मधुरस 'से छलछलाती विशाल आँखें, छोटे-बड़े सबके साथ निश्छल मधुर व्यवहार, अटल सैद्धान्तिक निष्ठा के साथ व्यवहारपटुता, यथार्थ एवं निष्पक्ष निर्णय की दिशा में तत्परता - ये कुछ ऐसी विलक्षणताएँ थीं जो उस व्यक्तित्व के भीतर छिपी महान् सम्भावनाओं को व्यक्त कर रही थीं । प्रथम साक्षात्कार की घड़ियों में ही उनके भविष्य की उज्ज्वल सम्भावनायें मेरी अनुभूति के जल में प्रतिबिम्बित हो उठी थीं। मुझे लगा यह व्यक्तित्व आगे चलकर समाज के अभ्युदय एवं संवृद्धि में महान योगदान कर पायेगा | अजमेर मुनि सम्मेलन के पश्चात् हम फिर कुछ दूर-दूर हो गए, पर यह दूरी अब केवल क्षेत्रीय थी, भावात्मक दूरी समाप्त हो चुकी थी । परिचय का आन्तरिक सूत्र अब भी सक्रिय था और जब-जब मैं उनके विकास, वृद्धि एवं प्रगति के संवाद सुन पाता तो हृदय सहज हर्षानुभूति से पुलक उठता । कुछ समय पश्चात् जब ब्यावर में राजस्थान के पाँच मुख्य सम्प्रदायों का विलीनीकरण हुआ और आप Jain Education International CHARLE श्री आनन्द अन्य 9 श्री आनन्द अन्यथ m For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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