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________________ 0 रवीन्द्रकुमार कोठारी नागपुर जैन समाज के उत्साही कार्यकर्ता] जैनधर्म दिवाकर आचार्यसम्राट : एक जीवन-दर्शन संसार में जब कभी अंधकार का आधिक्य हुआ और अंधविश्वास तथा अनीतियों का प्राबल्य आया, उसी बीच अंधकार के पट विच्छिन्न करके प्राची में उदय होने वाले अरुण सदृश किसी-न-किसी महान आत्मा ने मानवतन धारण कर अपने प्रखर व्यक्तित्व से जन-मानस को आलोकित किया। महान आत्माओं के इसी क्रम में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर, बालब्रह्मचारी, महामहिम, प्रातःस्मरणीय, जैनधर्म दिवाकर आचार्यसम्राट, पण्डितरत्न, गुरुवर्य पूज्य श्री १००८ श्री आनन्दऋषिजी महाराज का इस धरा पर अवतरण वि० सं० १६५७ में श्रवणमास की शुक्लपक्षीय प्रतिपदा (२६ जुलाई १९००) को हुआ था । आपके पिता श्री देवीचन्द जी धार्मिक वृत्ति के पुरुष थे; माता हुलासकंवर देवी भी महान धर्मात्मा महिला थीं। वैसे धर्म-परायण दम्पति से बालक नेमिचन्द (सांसारिक नाम) का अर्घ्य पाकर पावन चिंचोड़ ग्राम (अहमदनगर, महाराष्ट्र राज्य) धन्य हो उठा। तेरह वर्ष की सुकूमार अवस्था में आप अपनी माता से सविनय आज्ञा लेकर परम पूज्य श्री रत्नऋषिजी महाराज की श्रेयस् छाया में आए और वि० सं० १९७०, मार्गशीर्ष शुक्ला ६, रविवार को मिरीगाँव में भागवती दीक्षा ग्रहण की। बाद में मुनिश्री ने संयमसाधना के प्रति ऐसी लगन लगाई कि वह जीवनज्योति-सी जगमगा उठी। वि० सं० १९८४ की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, सोमवार को १२ बजे अल्लीपुर नामक ग्राम में आपके गुरुवर्य पण्डित रत्न ऋषिजी स्वर्गस्थ हो गए। इस दुखद समाचार के पाथर्डी (अहमदनगर) पहँचते ही उन्होंने तत्काल स्वर्गस्थ गुरुवर्य की पावन स्मृति में आचार्य श्री की प्रेरणा से एक पुस्तकालय स्थापित करने का निर्णय किया । पुस्तकालय का नाम "श्री रत्न जैन पुस्तकालय" रखा गया। आज यह एक समृद्ध पुस्तकालय बन गया है। इसमें गुजराती, अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, प्राकृत और मराठी आदि सभी भाषाओं की लगभग १२,००० पुस्तकें हैं। के दूसरे वर्ष ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, सं० १९८५ को सदर बाजार नागपुर में "जैनधर्म प्रसारक संस्था" की स्थापना आचार्यश्री के सदुपदेशों से की गई। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य आचार-विचार की दृष्टि से जीवन-उत्थान के लिए तथा जैन एवं जैनेतर समाज में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए धार्मिक पुस्तकों को प्रकाशित करना तथा स्वल्प मूल्यों में उन्हें वितरित करना है। इसके अतिरिक्त अनेकों ऐसी संस्थाएँ आचार्यश्री की प्रेरणा से चालू हुई तथा उन्हीं के पुण्य प्रताप से आज भी ये संस्थाएँ, पाठशालाएँ आदि व्यवस्थित रूप से चलकर जैनधर्म के विषय में फैलाए गए भ्रम का परिहार एवं सैद्धान्तिक प्रचार करती हैं। वि० सं० १९६६ में आचार्य श्री देवजीऋषिजी महाराज के सदर नागपुर में स्वर्गस्थ हो जाने पर A - .... . .. ............ A ccorrramaram For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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