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________________ - प्रवर अभिसापायप्रवर अभिनय आनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा अन्य५० ६४ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व माघ कृष्ण ६, बुधवार के दिन पाथर्डी शहर में आपको "ऋषिसम्प्रदाय के आचार्य" पद से विभूषित किया गया। यह एक ऐसा युग था जब स्थानकवासी समाज को साम्प्रदायिकता ने बुरी तरह आक्रांत कर क्लांतप्रायः कर रखा था और एकता की भावना प्रायः समाप्त हो चुकी थी-फलतः यह सम्प्रदाय लगभग २२ भागों में बंट चुका था। उन सभी सम्प्रदायों के अपने-अपने पृथक आचार्य थे, परन्तु समय ने करवट बदली और विभिन्न सम्प्रदायों में बंटा जैनसमाज संगठन के महासागर में विलीन होने के सुखद स्वप्न देखने लगा । गम्भीर मंत्रणाओं के पश्चात सभी आचार्य महापुरुषों ने अपूर्व उदारता प्रदर्शित कर वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना की तथा अपनी पदवियां श्रमण संघ को अर्पित कर दीं। अंततः संघ के प्रयत्नों से सादड़ी (मारवाड़) में वि० सं० २००६, वैशाख शुक्ल तृतीया के पुण्य दिन स्थानकवासी मुनिमण्डल का एक विराट सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को आचार्य पद सौंपा गया। वि० सं० २०१६, माघकृष्ण ६ (३० जनवरी १९६३) को आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् चतुर्विध संघ की ओर से महामान्य श्री श्री आनन्दऋषिजी महाराज को आचार्यपद की प्रतीक चादर समर्पित की गई। चतुर्विध संघ के संचालन का पूर्णभार आपके हाथों में आया। श्रमणसंघ जो कालचक्र के बहुबिध प्रहार से आक्रांत हो क्लांतप्रायः हो चला था, आपश्री ने अपनी प्रतिभा से उसे जाग्रत कर अपूर्व प्राणवत्ता प्रदान की। यह तो महान पुरुषों की अपनी परम्परा रही है परन्तु उनका तन-मन-चिंतन एवं सम्पूर्ण जीवन जन-कल्याणार्थ अर्पित होता है। उनकी साधना प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिए होती है। समन्वय के महान संस्थापक-आचार्यश्री का सम्पूर्ण जीवन नाना सम्प्रदायों, ज्ञान के नाना पहलुओं एवं तत्त्वचिंतन की विशिष्ट धाराओं का एक ऐसा समन्वित रूप है कि वह स्वतः समन्वय का एक संस्थापक बिब बन गया है। सर्वज्ञ महावीर प्रभु के अनेकान्तवाद एवं भगवान बुद्ध के करुणावाद का जीवित प्रतिबिंब यदि आप देखना चाहते हो तो इस महान पुरुष के दर्शन कर लें, जिसकी शाश्वत किरणों से श्रमण संघ पूर्णतः आलोकित है। महान पुरुष-गीता में दैवो स्वभाव वाले महान पुरुष का वर्णन करते हए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है : अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, परदोष-चिंतन-विरक्ति, प्राणियों पर दया, निर्लोभता, मृदुता, शीलवर्तता, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वेषहीनता, निरभिमानता, ये समस्त गुण उन व्यक्तियों के हैं जो दैवी स्वभाव लेकर मानवतन धारण करते हैं। ये समस्त गुण आचार्यश्री में स्वभावतया अंतहित हैं। इसमें कोई अत्युक्ति नहीं। निरभिमानता के प्रकट रूप आचार्य श्री जी अपने जीवन के महापथ में स्वतः सफल यात्री सिद्ध हये हैं और विनय आपकी वाणी में ही नहीं अपितु पद-पद में प्रतिष्ठित है। मानव-संस्कृति के सजग प्रहरी-आज का मानव आत्मिक अहमन्यता एवं भौतिकता की चकाचौंध से इतना पथभ्रष्ट हो गया है कि मानवता की किचित् झलक भी उसमें दृष्टिगत नहीं होती। सर्वत्र अनाचार, दुराचार, शोषण एवं उत्पीड़न का ताण्डव नृत्य हो रहा है । ऐसे विषम युग को सत्पथ दिखलाना मानव-संस्कृति के संरक्षक साधु व्यक्तित्व का ही कार्य है। आप मानव को उस पावन संस्कृति की ओर ले जाना चाहते हैं जो दानव को मानव बनाती है तथा मानव को देव के रूप में प्रतिष्ठित करती है। महान साधक-मानवहृदय में साधना का दीप जलाने वालों में आप ऐसे साधक हैं जिनकी साधना-ज्योति युगों से भूले मानव को प्रकाश देकर सत्पथ प्रदान करती है। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन जन-मानस को सन्मार्ग पर लाने और आत्मसाक्षात्कार कराने तथा प्राणिमात्र के लिए जीवन में शालीनता स्थापित करने के लिए प्रस्तुत कर रखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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