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________________ आनन्दमूर्ति : आचार्य श्री आनन्दऋषि (हरियाणा) निकट चंडीगढ़ में प्राकृत शिक्षण संस्था का निर्माण हुआ । पंजाब की समग्र जनता ने नैतिकता तथा धार्मिकता एवं शिक्षा के रूप में जो कुछ आपसे प्राप्त किया वह सदा के लिये अमर रहेगा । ७५ वर्ष की आयु और ६१ वर्ष की दीक्षा में आपने समग्र भारत की पदयात्रा में जो कुछ समाज को दिया, वह सदा के लिए स्मरणीय रहेगा । उपसंहार उपरोक्त जो कुछ भी उनके अभिनन्दन में लिखा गया है वह अत्यल्प है, हमारी सच्ची भावना तो इसी में है कि जो कुछ उन्होंने हमें दिया है, हम उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हुए, समाज की सेवा करते हुए प्रभु के पावन मिशन को घर-घर पहुँचाए । सच्चे अर्थों में यही हमारी सेवा आचार्यश्री के प्रति होगी । अन्त में यही कहना होगा कि - कागज सब धरती करू लेखन सब वन राय । सब समुद्र स्याही करू, तब गुण लिखा न जाय ॥ ६१ श्रद्धा पुष्प अन्त में हमारी यही सद्भावना है कि युगों पर्यन्त आचार्य श्री के पावन कर हमारे मस्तक पर रहें और उनकी छत्रछाया में निरन्तर साधना पर प्रगतिशील रहें । अन्त में इन्हीं मंगल कामनाओं के साथआप जिएँ कई हजार वर्ष और उन वर्षों के हों दिन कई हजार । ✩ Jain Education International आनन्ददाता : आनन्दऋषि जी [ महासती पुष्पावती 'साहित्यरत्न' आचार्य प्रवर आनन्दऋषि जी महाराज श्रमण संघ के एक वरिष्ठ आचार्य हैं । आचार्य जैसे गौरवपूर्ण पद पर आसीन होने पर भी आपश्री में अभिमान नहीं है । आपका सरल और निश्छल व्यक्तित्व, धीर शान्त प्रकृति और अकृत्रिम व्यवहार को देखकर कौन प्रभावित नहीं होता । वाणी से नहीं, व्यवहार से व्यक्तित्व को देखा और परखा जाता है । व्यवहार जीवन का दर्पण है । उसी में जीवन का तथ्य, सत्य और कथ्य सभी प्रतिविम्बित होता है। जीवन की वह कसौटी है । आचार्यश्री का जीवन इस कसौटी पर पूर्ण खरा उतरा है । मैंने आचार्यश्री के अनेक बार दर्शन किये हैं और जितनी भी बार दर्शन किये हैं उतनी ही बार आनन्द की अनुभूति हुई है । आपश्री नाम से ही केवल आनन्द नहीं है किन्तु आप श्री का सम्पर्क भी आनन्द प्रदान करने वाला है । कोई भी जिज्ञासु आपश्री के पास पहुँचता है, उसे सही समाधान मिलता है | आपश्री गम्भीर चिन्तक हैं। आपश्री की वाणी मधुर है और मन भी मधुर है । आगम की भाषा में कहूँ तो 'हिययमपावमकलुस जीहा वि य महुर भासिणी णिच्च' हृदय अकुलष है, निष्पाप है और वाणी में मधुर अलाप है । 'महुकुंभे महु पिहाणं' है । मैं आचार्यप्रवर के चरणों में श्रद्धास्निग्ध श्रद्धाञ्जलि अर्पित करती हूँ और मंगल कामना करती हूँ कि आपश्री पूर्ण रूप से स्वस्थ रहकर हमें सदा मार्ग-दर्शन प्रदान करते रहें । ✩ For Private & Personal Use Only श माण 漫 元 द आचार्य प्रवास अभिनन्दन आनन्दका अन्थ www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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