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________________ . १६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड कर सकें तो हमें ऐसा अनुभव आयेगा कि हर व्यक्ति कुछ न कुछ विचार अवश्य करता है। इस आवश्यक स्वरूप की ध्यान प्रक्रिया अवश्य मार्गदर्शक हो सकती है। मनोविज्ञान के आधुनिक रूप में शरीर की व्याधियों का सम्बन्ध मन के साथ जोड़ा जा रहा है और मन का सम्बन्ध व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के साथ । दूसरे शब्दों में हर व्यक्ति के ऊपर स्वयं एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ खड़ा होता है और इस उत्तरदायित्व से निपटने के लिए स्वयं के जीवन की स्पष्ट कल्पना बहुत आवश्यक है। जीवन की स्पष्ट कल्पना आने के लिए जीवन का चित्र जब तक स्पष्ट रूप से सामने न होगा यश-अपयश की बात असम्भव है, और जीवन का स्पष्ट उद्देश्य जब तक मन शान्त न होगा, संकल्पना शक्ति कुछ काम न करेगी। हम रोज मन-शांति के उपाय लोगों से सुनते हैं। मन-शांति के लिए प्राचीन समय में लोग एकान्त गुफाओं की खोज में भागते थे । आधुनिक युग में अपने घरों को लोग वातानुकूलित और ध्वनि-नियन्त्रित कराने का प्रयत्न करते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य उपकरण, सुगन्ध, संगीत आदि के रूप में भी प्रचलित हैं और लोगों को उनका आकर्षण भी है। परन्तु ये सभी बाहरी उपकरण एक मर्यादा तक ही उपयोगी हैं। महत्वपूर्ण वातावरण और परिस्थिति साधना करने वाले को स्वयं ढूंढ़ लानी होगी। अतः हमारी यह धारणा है कि ध्यान करने की जगह, समय, मन्त्र, गुरु आदि निश्चित रूप से उपयोगी हैं । परन्तु ध्याता सर्वोपरि महत्वपूर्ण अंग है और ध्यान करने वाले के शरीर और कार्य पर उसका परिणाम अवश्य होना ही चाहिए। अभिप्राय यह है कि जिस मनःशांति की बात या आकांक्षा लोग करते हैं उसकी आकांक्षा ध्यान द्वारा ही तीव्र होगी। ध्यान द्वारा ही हमारे शरीर की संवेदनशीलता बढ़ेगी और संवेदनशीलता के साथ-साथ सहनशीलता भी। ध्यान, किसी भी समय शरीर को किसी भी निश्चल अवस्था में अपनी इच्छानुसार एक मर्यादा तक स्थिर रखना होगा। सम्भवतः परम्पराओं से बँधे हुए लोगों को ध्यान की यह परिभाषा रुचिकर न लगे परन्तु परम्पराएं और सुविधा समन्वयात्मक रूप में यदि साधक के जीवन में कुछ सुविधाएँ और प्रगति दे सके तो परम्पराएं थोड़ी देर के लिए स्थगित करने में कोई हर्ज नहीं। कोई एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में दो-तीन घण्टे एकाग्रचित्त होकर यदि कोई प्रयोग कर रहा है और टाँग टूट जाने के कारण बिस्तरे पर पड़ा हुआ कोई रोगी यदि एक-दो घण्टे निश्चल रूप में एक विचार को पकड़कर लेटा रह सकता है और सड़क पर भीड़ में गाड़ी चलाने वाला दुर्घटना किये बिना सफल रूप से वाहन चलाने वाला और उसी प्रकार के अन्य उदाहरणों में जीवन में रस लेने वाला व्यक्ति ध्याता क्यों नहीं हो सकता ? ध्यान करने के लिए या ध्यान की अवस्था लाने के लिए पद्मासन या अन्य आसन यदि किया तो कोई हर्ज नहीं, परन्तु जिसे पद्मासन करना नहीं आता वह ध्यान नहीं कर सकता, यह अभिप्राय हम नहीं दे सकेंगे । क्योंकि ऐसी सम्भावना है कि पद्मासन करने वाला शायद अपने पैर या कमर की ओर ही अधिक ध्यान देगा और इसलिए यदि शरीर ही सुख-अवस्था में न हुआ तो शरीर के आगे ध्याता कहाँ जायेगा? हमारा तो अभिप्राय यह भी है कि लेटकर भी ध्यान किया जा सकेगा। लक्ष्य इतना ही रखना होगा कि ध्याता ध्यान में पहुंचना चाहता है अथवा सोना चाहता है। अभिप्राय, ध्यान की यदि कोई अवस्था है तो उसका पूर्णरूपेण आनन्द अनुभूति की शक्ति और सामर्थ्य एकाग्रता के रूप में एकत्रित हो सकनी चाहिए । अतएव हमें यहाँ दो सिद्धान्तों का प्रस्थापित होना दृष्टिगत होता है। सर्वप्रथम अष्टांग योग की प्रक्रिया में ध्यान का जो क्रम है उस क्रम की भावना शारीरिक और मानसिक दृष्टि से परिपक्वता है। इसके अनुसार शरीर को नियन्त्रित करने वाले प्राण का नियमन अभिप्रेत है और साथ ही ध्यान की ओर मन की तैयारी एक स्पष्ट और निश्चित क्रम है । अतएव पहला दृष्टिकोण परम्परागत प्रणाली में ही मान्य होकर स्वीकृत होगा। दूसरा आयाम उस विधि की ओर संकेत है जिसके अनुसार हम ध्याता को उसकी सुविधानुसार ध्यान करने का स्वातन्त्र्य दे रहे हैं। आधुनिक युग की मनोवैज्ञानिक खोज के साथ हम इस निर्णय पर तो अवश्य ही आते हैं कि यदि ध्यान आदि किसी प्रक्रिया का प्रयोग करना है तो शरीर में किसी प्रकार का संवेगात्मक तनाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि संवेगात्मक तनाव का सबसे पहला प्रभाव श्वसन प्रक्रिया पर ही होता है । उसी प्रकार कभी-कभी अत्यन्त अद्विग्न अवस्था में भी श्वास की गति कम होती हुई पायी गयी है जिसे (Depression) की अवस्था के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यह ध्यान नहीं है, यद्यपि श्वास की गति कम है । अभिप्राय श्वास की गति को हेतुपूर्वक नियन्त्रण में लाना है और हेतपूर्वक नियन्त्रण में लायी गयी श्वसन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप शरीर में प्रस्थापित हुई अवस्था ध्यान कहलायेगी। इस अवस्था में हम शरीर की शक्तियाँ कुछ भी व्यय नहीं कर रहे हैं वरन् जब कभी भी ध्यान की तथाकथित अवस्था समाप्त होगी तब एक अभूतपूर्व उत्साह, आनन्द और ताजगी का अनुभव होगा । यदि थकान का अनुभव होता है तो वह ध्यान नहीं होगा किन्तु उसका चित्र लिया जा सकेगा। लोगों को प्रभावित करने के लिए उसका वर्णन ध्यान के रूप • O Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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