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________________ योग : स्वरूप और साधना १५ योगशास्त्र के अनुसार कषायों से मुक्ति ध्याता के लिए एक आवश्यक योग्यता बतायी गयी है। उसी प्रकार वायु की भाँति निसंग-अवस्था ध्यान के लिए बहुत आवश्यक बतायी गयी है। योगसूत्रों के भाष्यकार चित्तवृत्ति की एकाग्रता को ध्येय में रखकर ध्यान करने के लिए प्रेरित करते हैं। हठयोग में स्पष्ट रूप से प्राण निरोध का संकेत किया गया है। दूसरे शब्दों में जब तक पवन-विजय या प्राण-निरोध नहीं होता तब तक चित्तवृत्तियों पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता । हठयोग की प्रक्रिया एक निश्चित दृष्टिकोण को लेकर विकसित की गयी है और यद्यपि हठयोग की सभी मान्यताएँ समाज के सभी स्तर के लोगों को मान्य न हों तो भी कुछ निष्कर्ष मननीय हैं और हमारी यह मान्यता है कि कोई भी मत या लिंग या धर्म इन्हें स्वीकार करने के लिए कोई बाधा उपस्थित नहीं करेगा। हेतुद्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः । तयोविनष्ट एकस्मिस्तौ द्वावपि विनश्यतः ॥२२॥ मनो यत्र विलीयेत पवनस्तत्र लीयते । पवनो लीयते यत्र मनस्तत्र विलीयते ॥२३॥ मनःस्थैर्येस्थिरो वायुस्ततो बिन्दुः स्थिरो भवेत् । बिन्दुस्थैर्यात्सदा सत्त्वं पिण्डस्थैर्य प्रजायते ॥२८॥ इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः । मारुतस्य लयो नाथः स लयो नावमाश्रितः ॥२६॥ इन श्लोकों में प्राणशक्ति के नियन्त्रण की ओर संकेत है। श्वास की गति का हमारे भावनात्मक और संवेगात्मक जीवन के साथ सम्बन्ध है । प्रसन्न अवस्था, क्रोध, दु:ख आदि के समय सबसे पहले परिणाम श्वसन-प्रक्रिया पर दीखता है। आधुनिक युग में जो तनावपूर्ण जीवन का वर्णन किया जाता है उसका विवरण श्वास-गति के साथ है। योग में जिस संयम का वर्णन किया जाता है उसका आरम्भ यम, नियम से होता है और यदि यम, नियम जीवन में आस्था ला सकें तो जीवन की बहुत-सी कठिनाइयाँ आने से पहले ही विलीन हो सकती हैं, और कुछ बची-खुची प्रक्रियाएँ आसन-प्राणायाम आदि के साथ समन्वयात्मक रूप में एक स्थिर जीवन प्रस्थापित करेंगी जिसका लक्ष्य प्रत्यय-एकतानता ही होगा। उसी जीवन में लक्ष्य होगा और वही जीवन सफल होगा और वही सफल जीवन अपनी सफलता के परिणामस्वरूप दूसरों के मार्ग प्रशस्त कर सकेगा क्योंकि उसका जीवन एक दढ नैतिक आधार पर खड़ा रहेगा। अतः ध्यान की प्रक्रिया एक जंजीर में गंथी हई प्रक्रिया है और उस जंजीर से उसे अलग करना या देखना 'ध्यान' और 'स्वयं' दोनों पर अन्याय होगा। केवल व्यावहारिक सुविधा के लिए ही ये विचार यहाँ व्यक्त किये जा रहे हैं। ध्यान की सच्ची भावना के अनुसार ध्यान का प्रयोग करना चाहिए । चिन्तन, मनन और लेखन उसका एक अंग है और एक मर्यादित अंश तक ही उसका लाभ हो सकेगा। हमारी धारणा यह भी है कि एक निश्चित क्रमगत जीवन के बाद ध्यान करना नहीं पड़ेगा, ध्यान हो जायेगा। भगवान महावीर के जीवन में कुछ उस प्रकार की घटनाओं का वर्णन मिलता है, जहाँ वे किसी एक विशेष अवस्था में सहज स्वरूप में दीखते हैं। उस अवस्था को दिखाने के लिए उन्हें कुछ प्रयत्न नहीं करना पड़ता था। परन्तु इस चरम अवस्था के पीछे उनकी सुदीर्घ साधना थी और यह अवस्था उसका परिणाम थी। इसी प्रकार का वर्णन गौतमबुद्ध और आधुनिक युग तक के इस मार्ग की ओर आकृष्ट अनेक सन्तों के जीवन में उपलब्ध है। हमारा अभिप्राय इस प्रक्रिया की ओर संकेत करना है कि ध्यान एक अवस्था है और वह होती है, लायी नहीं जा सकती । सम्भवतः इसीलिए शास्त्रकारों ने इस विषय में बहुत कम लिखना पसन्द किया। अनुभूतियों को शब्दों में बाँधने के बाद अर्थगत कठिनाइयों से बचने का हेतु स्पष्ट परिलक्षित होता है। साथ ही जिनकी इस विषय की ओर रुचि है, उन्हें प्रयत्न करने की प्रेरणा भी है। क्या ध्यान को समाज के सर्वसाधारण स्तर तक ला सकते हैं ? और क्या यह सर्वसाधारण के लिए सरल और उपयुक्त प्रक्रिया है ? उत्तर बहुत सीधा और सरल है। समाज में रहने वाले ऐसे लोग जो गम्भीरता के साथ अपने जीवन के बारे में विचार करते हैं, जीवन का हित-अहित जिन्हें अभिप्रेत है और अधिकार व कर्तव्य, स्वार्थ और परार्थ, नीति-अनीति के विषय में यदि पूर्ण नहीं तो कुछ विचार करते हैं, उन्हें यह मार्ग अवश्य उपयोगी और परिणामकारक सिद्ध होगा। थोड़ी देर के लिए शास्त्रों का आधार न लेते हुए जीवन की गतिविधियों के सम्बन्ध में यदि हम विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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