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________________ योग : स्वरूप और साधना १७ . O o में लोग अवश्य कर देंगे । परन्तु इस प्रक्रिया में बहुत सारी शक्ति का अपव्यय हो चुका होगा और कालान्तर में इससे अरुचि होने की सम्भावना बहुत अधिक मात्रा में है। प्रारम्भ में हमने पतंजलि का उल्लेख किया है । आसनों का वर्णन पतंजलि ने "अनन्त समापत्ति" कहा है। इसका अर्थ ऐसी अवस्था के साथ किया गया है जहाँ “प्रयत्न" का काम समाप्त हो गया है। क्रिया हो रही है, की नहीं जा रही है। क्रिया करने में शक्ति का उपयोग करना पड़ता है परन्तु होने में स्वाभाविक रूप से क्रिया होती है । हठयोग में भी एक ऐसी अवस्था का वर्णन है जहाँ पर चित्त विश्रान्ति का वर्णन है । सम्भवतः उनका भी हेतु शरीर की ऐसी अवस्था को प्राप्त करना है जिसमें शरीर के ऊपर किसी प्रकार का तनाव या बोझा न रहे। प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ तत्त्वानुशासन में बहुत ही विस्तृत रूप से ध्यान का वर्णन किया गया है। पूरे ग्रन्थ का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार होगा कि ध्याता सभी प्रकार के संयम और विधि-निषेध स्वयं निश्चित करे और उसके प्राप्त फलों को भोगने के लिए सब प्रकार की तैयारी उसकी स्वयं की होनी चाहिए। पूरे ग्रन्थ में विस्तृत रूप से इसका वर्णन किया गया है। एक अन्य प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ ज्ञानार्णव के अनुसार ध्यान और संयम एक-दूसरे के आधार बताये गये हैं। ध्यान का वर्णन बहुत ही विस्तृत रूप में किया गया है। परन्तु महत्वपूर्ण सिद्धान्त इस बात पर आधारित है कि जिसका शरीर पर अनिष्ट परिणाम हो उस वातावरण में नहीं रहना चाहिए। [सर्ग २६ और २७] इसी ग्रन्थ में अन्तिम सर्गों में बहुत ही विस्तार के साथ ध्यान के स्वरूप और फल का वर्णन किया गया है जिसका संक्षिप्त वर्णन उसी ग्रन्थ के आधार पर भिन्न-भिन्न परिणामों के रूप में वहाँ पर वर्णित है। ध्यान सम्बन्धी विस्तृत विश्लेषण का कारण धार्मिक चिन्तन करने वाले साधकों की सुविधा के लिए एक निश्चित मार्ग प्रदर्शित करने का हेतु है । आरम्भ में ही ध्यान के साथ धर्म का भी उल्लेख चित्त को स्थिर करने के लिए विशेष उल्लेखनीय है और ध्यान की ओर प्रवृत्त साधकों को कर्म-विपाक से मुक्ति प्राप्त करने का आश्वासन भी आचार्यों ने दे दिया है ।। इस निबन्ध में भारतीय परम्परा का ध्यान सम्बन्धी एक संक्षिप्त विश्लेषण समन्वयात्मक रूप में करने का प्रयत्न किया गया है। प्राचीन शास्त्रीय सिद्धान्त और आधुनिक मनोवैज्ञानिक प्रयोगों का उल्लेख करने का हेतु इतना ही है कि विचारशील मनुष्य के लिए ध्यान एक उपयोगी प्रक्रिया है। शास्त्रीय आधार से जरा परे हटकर हम यह कहने का दुस्साहस करते हैं कि जिनकी रुचि या भावना ध्यान में प्रविष्ट होने की होती हो उन्हें परम्पराओं का डर नहीं होना चाहिए । वास्तव में जरा से गहरे चिन्तन से हमें यह लक्षित होगा कि ध्यान-प्रक्रिया को ओर जाते हुए हम किसी मत, सिद्धान्त या धर्म का खण्डन नहीं कर रहे हैं। ध्यान-प्रक्रिया का धर्म, मत या सिद्धान्त के साथ सम्भवतः कोई भी सैद्धान्तिक भेद नहीं होगा। साधना-मार्ग की ओर चलने वाले साधक की यह एक स्वाभाविक अवस्था है। साधनाओं का स्वरूप असाम्प्रदायिक है, उसी प्रकार ध्यान का स्वरूप भी असाम्प्रदायिक है। यदि श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया पर हम ध्यान कर सकते हैं, और उसमें हमें आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है तो इस प्रकार के ध्यान में सभी धर्मों के लोग एकत्र बैठ सकते हैं। उसी प्रकार कुण्डलिनीयोग का उल्लेख किया गया है। भिन्न-भिन्न चक्रों का वर्णन बड़े ही मार्मिक रूप में हठयोग और तांत्रिक साहित्य में उपलब्ध है। अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार ध्यान का केन्द्र चुना जा सकता है और अवधि भी निश्चित की जा सकती है। इन सभी प्रयोगों में भी कोई धार्मिक भावना अड़चन उत्पन्न नहीं करती। महत्वपूर्ण प्रश्न, शंकाएँ इस रूप में आयेंगी कि क्या हम ध्यान द्वारा स्वयं को सम्मोहित तो नहीं कर रहे हैं अथवा स्वयं को किसी एक विशेष प्रकार की आदत (conditioning) का शिकार तो नहीं बना रहे हैं ? वस्तुतः इस प्रकार की शंकाओं का आधुनिक युग में सन्देहमय बातावरण के कारण उठना स्वाभाविक है। परन्तु यदि सचमुच में मानव व्यथित या दुःखी है और उसे स्वयं ही अपने द्वारा एक मार्ग मिलता हुआ दीखता है तो इसमें आपत्ति होने का कोई कारण नहीं होना चाहिए । इसका अर्थ यह नहीं है कि हम सम्मोहन आदि का प्रतिपादन कर रहे हैं । न ही किसी विशेष प्रकार की आदत का शिकार हमें मानव को बनाना है। परन्तु उसकी संवेदनशीलता का विकास करना बहुत आवश्यक है और ध्यान की अवस्था में जब शरीर का बहुत सारा कार्यकलाप स्थगित हो जायेगा तो शरीर को संवेदनशीलता स्वाभाविक रूप में बढ़ने लगेगी। आधुनिक युग में भारत में और विदेशों में भी इस सम्बन्ध में बड़े व्यापक रूप पर प्रयोग और अन्वेषण किये जा रहे हैं। ऐसा भी देखने में आया है कि लोगों की रुचि इस ओर बढ़ रही है। अब प्रश्न यह होगा कि ध्यान को एक वैज्ञानिक रूप दिया जाय या सहज अवस्था में ही रहने दिया जाय। यह आने वाला समय बतायेगा। . *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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