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________________ राजस्थानकेसरी अध्यात्म-योगी प्रसिद्धवक्ता परम श्रद्धेय उपाध्याय पण्डित प्रवर श्री पुष्कर मुनिजी श्रमण संघ के एक विशिष्ट सन्त हैं। उनके जीवन में विविधविधाओं का सुन्दर संगम हुआ है जहाँ उनमें श्रद्धा का प्राधान्य है वहाँ उनमें तर्क की प्रबलता भी है । जहाँ उनमें हृदय की अत्यन्त सुकुमारता है, वहाँ अनुशासन में कठोरता भी है । जहाँ उनमें दार्शनिक गम्भीरता है वहाँ उनमें कला की कमनीयता भी है । जहाँ उनमें जप और ध्यान के प्रति अनुराग है वहाँ संसार के भौतिक पदार्थों के प्रति विराग भी है । जहाँ संयम साधना, तप आराधना और मनोमंथन की अपेक्षा है वहाँ यशः कामना के प्रति उपेक्षा भी है, ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व है द्रदेव श्री का उजाले इतिहास का हम पर्यवेक्षण करें तो सूर्य के की भाँति स्पष्ट परिज्ञात होगा कि आज तक कोई भी व्यक्ति बिना तपे ज्योति नहीं बना है और बिना खपे कोई भी व्यक्ति मोती भी नहीं बना है। व्यक्तित्व को निखारने के लिए तपना होता है, खपना होता है। सद्गुरुवर्य ने कठोर श्रम किया है, उग्र साधना की है। जन-हित सम्पा दन करना उनकी साधना का संलक्ष्य नहीं है। वे स्वयं के लिए ही साधना करते हैं। आत्मोपकार के बिना जो परोपकार किया जाता है वह स्वयं को गंवा कर दूसरों को बनाने का प्रयास करना है। सत्य तथ्य यह है कि वह अन्य को बना नहीं पाता और स्वयं की साधना को भी गंवा देता है । वही साधक दूसरों का निर्माण कर सकता है जो सर्वप्रथम स्वयं का निर्माण करता है। सद्गुरुदेव का जितना रस अन्य साधक साधिकाओं के निर्माण में है उससे भी अधिक रस स्वयं के निर्माण में है । मैंने बालब्रह्मचारिणी तपोमूर्ति सद्गुरुणी श्री सोहन कुँवर जी महाराज के त्याग - वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को श्रवण कर सं० १९९४ में मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। उस समय गुरुदेव Jain Education International प्रथम खण्ड : श्रद्धाचंन ४७ विलक्षण व्यक्तित्व [3] महासती पुष्पावती जी 'साहित्यरत्न' O जब महाराष्ट्र में नासिक मनमाड की ओर विचार रहे थे, आपश्री वि० सं० १९६५ में उदयपुर पधारे तब सर्वप्रथम मुझे दर्शनों का सौभाग्य मिला। गुरुदेव ने मेरे अध्ययन की परीक्षा ली और वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने सद्गुरुणीजी को आदेश दिया कि इन्हें संस्कृत प्राकृत का गम्भीर अध्ययन कराना चाहिए । संस्कृत-प्राकृत के अध्ययन के बिना आगम के बम्भीर रहस्यों का परिज्ञान नहीं हो सकता। जैनदर्शन का मर्म समझा नहीं जा सकता । गुरुदेव ने मुझे अध्ययन का महत्त्व बताते हुए कहाअध्ययन से जीवन निखरता है, बुद्धि मंजती है विचार निर्मल होते हैं और विवेक उद्बुद्ध होता है। 'पढमं नाणं For Private & Personal Use Only तओ दया, यह शास्त्र का वचन है। गीताकार ने भी ज्ञान को सबसे अधिक पवित्र माना है 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते । हमारे यहाँ पर दो शब्द प्रचलित हैं 'ज्ञान और ध्यान' पहले ज्ञान है फिर ध्यान है। उत्तराध्ययन सूत्र में जो श्रमण- सामाचारी का वर्णन है, उसमें दिन रात के आठ प्रहरों में चार प्रहर स्वाध्याय के लिए है, दो प्रहर ध्यान के लिए, एक प्रहर भिक्षा आदि के लिए और एक प्रहर नींद आदि विश्राम के लिए है । इस प्रकार सबसे अधिक समय साधक को ज्ञान में लगाना चाहिए । "पहला ही कर्म ज्ञानावरणीय है उसे तोड़ने का दृढ़ संकल्प करलो" सद्गुरुदेव की प्रबल प्रेरणा से और सद्गुरुणीजी महाराज के अनुग्रह से मैं अध्ययन में लगी। मेरे अध्ययन का सम्पूर्णश्रेय सद्गुरुवयं को है। यदि सद्गुरुवयं उस समय प्रबल प्रेरणा प्रदान नहीं करते तो मैं अध्ययन की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती । अध्ययन चिन्तन-मनन ने मेरे जीवन का नक्शा ही बदल दिया । विक्रम सं० १९६७ में मेरे लघुभ्राता धन्नालाल ने पूज्य गुरुदेव के पास जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की, दीक्षा के पश्चात् जिनका नाम देवेन्द्र मुनि रखा गया, उसके पश्चात् मातेश्वरी ने भी दीक्षा ली। जिनका नाम प्रभावतीजी ० www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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