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________________ जैन शिक्षा-पद्धति ५३. इन दोनों के भी निम्नलिखित सात भेद हैं(१) नैगम-अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करना । (२) संग्रह-भेदसहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करना । जैसे घट कहने से सभी प्रकार के घटों का ग्रहण हो जाता है । २२ (३) व्यवहार-संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण या भेद करना । जैसे घट के स्वर्णघट, रजतघट, मृत्तिकाघट आदि भेद । (४) ऋजुसूत्र-वर्तमान पर्याय मात्र को ग्रहण करना । (५) शब्दनय--शब्द प्रयोगों में आने वाले दोषों को दूर करके तदनुसार अर्थभेद की कल्पना करना ।२५ (६) समभिरूढ–शब्दभेद के अनुसार अर्थ भेद की कल्पना करना।" (७) एवंभूत-शब्द के फलित होने वाले अर्थ के घटित होने पर ही उसको उस रूप में मानना । अनुयोगद्वारविधि-तत्त्वों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनुयोगद्वार विधि बतायी गयी है। इसके निम्नलिखित छ: भेद हैं (१) निर्देश-वस्तु के नाम का कथन करना। (२) स्वामित्व-वस्तु के स्वामी का कथन करना । (३) साधन-जिन साधनों से वस्तु बनी है, उसका कथन करना । (४) अधिकरण-वस्तु के आधार का कथन करना । (५) स्थिति-वस्तु के काल का कथन करना। (६) विधान-वस्तु के भेदों का कथन करना। प्ररूपणाविधि-प्ररूपणा के निम्नलिखित आठ भेद हैं :(१) सत्-अस्तित्व कथन करके समझाना । (२) संख्या-भेदों की गणना करके समझाना। (३) क्षेत्र- वर्तमान काल विषयक निवास को ध्यान में रख कर समझाना । (४) स्पर्शन-त्रिकाल विषयक निवास को ध्यान में रखकर समझाना । (५) काल-समयावधि को ध्यान में रखकर समझाना । (६) अन्तर-समय के अन्तर को ध्यान में रखकर समझाना । (७) भाव-भावों का कथन करके समझाना । (८) अल्पबहुत्व-एक दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिक का ज्ञान करके समझाना । स्वाध्यायविधि-विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वाध्याय विधि का उपयोग किया जाता था। इसके निम्नलिखित पाँच भेद बताये गये हैं (१) वाचना-ग्रन्थ, अर्थ या दोनों का निर्दोष रीति से पाठ करना वाचना है। (२) पृच्छना-शंका को दूर करने के लिये या विशेष निर्णय करने के लिये पृच्छा करना पच्छना है। (३) अनुप्रेक्षा—पढ़े हुए पाठ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उसका पुनः पुनः मन से विचार करते रहना अनुप्रेक्षा है। (४) आम्नाय-जो पाठ पढ़ा है उसका शुद्धतापूर्वक पुनः-पुनः उच्चारण करना आम्नाय है। (५) धर्मोपदेश-धर्मकथा करना धर्मोपदेश है। स्वाध्यायविधि का उपयोग प्रज्ञा में अतिशय लाने के लिये, अध्यवसाय को प्रशस्त करने के लिये, परम संवेग के लिये, तप में वृद्धि करने के लिये तथा अविचारों में विशुद्धि लाने आदि के लिये किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गूढ़ से गूढ़ विषय को भी इस रूप में प्रस्तुत किया जाता था कि शिष्य उसे भली प्रकार हृदयंगम कर सके। इसके लिये विषयवस्तु को सूत्ररूप में कहा जाता था क्योंकि उस युग में सम्पूर्ण शिक्षा मौखिक और स्मृति के आधार पर चलती थी। इसी कारण प्रारम्भिक साहित्य सूत्र रूप में मिलता है। कभी-कभी विषयवस्तु को गेयरूप में भी प्रस्तुत किया जाता था जिससे उसे कंठस्थ किया जा सके । कथाओं के माध्यम से भी विषयवस्तु को कहा जाता था जिससे उन कथा-प्रसंगों के साथ मूल वस्तुत्त्व को याद रखा जा सके । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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