SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 787
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड +++++ + ++++ + + ++ + ++ ++ + ++ ++ + ++ + ++++ ++++ ++ + ++ ++++ ++ ++ + + + + + ++ + + + ++ + + + ++ + +++ ++ + ++ अधिगम के निम्नलिखित भेद हैं : निक्षेपविधि-लोक में या शास्त्र में जितना शब्द व्यवहार होता है, वह कहाँ किस अपेक्षा से किया जा रहा है, इसका ज्ञान निक्षेपविधि के द्वारा होता है। एक ही शब्द के विभिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकते हैं। इन अर्थों का निर्धारण और ज्ञान निक्षेपविधि द्वारा किया जाता है। अनिश्चय की स्थिति से निकालकर निश्चय में । पहुँचाना निक्षेप है। निक्षेपविधि के चार भेद हैं - (१) नाम, (२) स्थापना, (३) द्रव्य, (४) भाव । (१) नामनिक्षेप-व्युत्पत्ति की अपेक्षा किये बिना संकेत मात्र के लिए किसी व्यक्ति या वस्तु का नामकरण करना नामनिक्षेपविधि के अन्तर्गत आता है। जैसे किसी व्यक्ति का नाम हाथीसिंह रख दिया। नामनिक्षेप विधि ज्ञान प्राप्ति का प्रथम चरण है। (२) स्थापनानिक्षेप-वास्तविक वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति, चित्र आदि बनाकर अथवा उसका आकार बिना बनाये ही किसी वस्तु में उसकी स्थापना करके उस मूल वस्तु का ज्ञान कराना स्थापनानिक्षेपविधि है। इसके दो भेद हैं (क) सद्भावस्थापना (ख) असद्भावस्थापना । (क) सद्भावस्थापना का अर्थ है मूल वस्तु या व्यक्ति की ठीक-ठीक प्रतिकृति बनाना । यह प्रतिकृति काष्ठ, मृत्तिका, पाषाण, दाँत, सींग आदि की बनाई जा सकती है। इस प्रकार की प्रतिकृति बनाकर जो ज्ञान कराया जाता है वह सद्भावस्थापनाविधि है। (ख) असद्भावस्थापना में वस्तु की यथार्थ प्रतिकृति नहीं बनायी जाती प्रत्युत किसी भी आकार की वस्तु में मूल वस्तु की स्थापना कर दी जाती है । जैसे शतरंज के मोहरों में राजा, वजीर, प्यादे, हाथी आदि की स्थापना कर ली जाती है। षट्खण्डागम, धवला तथा श्लोकवात्तिक आदि में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है । (३) द्रव्यनिक्षेप"-वर्तमान से पूर्व अर्थात् भूत एवं बाद की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वस्तु का ज्ञान कराना द्रव्यनिक्षेपविधि है। इस विधि के भी आगम और नोआगम दो भेद हैं । नोआगम के भी तीन भेद हैं । (४) भावनिक्षेप-वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखकर वस्तुस्वरूप का ज्ञान कराना भावनिक्षेपविधि है। इनके भी आगम और नोआगम ऐसे दो भेद हैं । प्रमाणविधि"-संशय आदि से रहित वस्तु का पूर्णरूप से ज्ञान कराना प्रमाणविधि है। जैन आचार्यों ने प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया है। जीव और जगत का पूर्ण एवं प्रामाणिक ज्ञान इस विधि के द्वारा प्राप्त किया है। सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण के अन्तर्गत माना है । मिथ्याज्ञान प्रमाणाभास हो सकते हैं, प्रमाण नहीं । प्रमाण विधि के दो भेद हैं। (क) प्रत्यक्ष (ख) परोक्ष प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-(१) सांव्यवहारिक या इन्द्रियप्रत्यक्ष । (२) पारमार्थिक या सकलप्रत्यक्ष । परोक्ष के निम्नलिखित पाँच भेद हैं(१) स्मृति (२) प्रत्यभिज्ञान (३) तर्क (४) अनुमान (५) आगम । जैन आचार्यों ने इनका विस्तार से वर्णन किया है । २१ नयविधि-इस विधि के द्वारा वस्तुस्वरूप का आंशिक विश्लेषण करके ज्ञान कराया जाता है। नय के मूलतः दो भेद हैं। (१) द्रव्यार्थिक (२) पर्यायाथिक । . 0. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy