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________________ ०५४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड जैन शिक्षा विधि की एक विशेषता यह भी रही है कि जैन आचार्यों ने मुख्यरूप से सदा लोकभाषाओं को साहित्यिक स्वरूप देकर शिक्षा का माध्यम बनाया । उन्हीं भाषाओं को साहित्यिक स्वरूप देकर उनमें ग्रन्थों की रचना की। इन भाषाओं को जनसामान्य की भाषा होने के कारण प्राकृत कहा गया तथा विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार इनके अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि नाम दिये गये। बाद में यही भाषाएँ अपभ्रंश हुई और राजस्थानी, गुजराती, मराठी, मगही, मैथिली, भोजपुरी, आदि के रूप में विकसित हुई। संस्कृत को भी जैन शिक्षकों ने शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाया तथा संस्कृतभाषा में विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की। इस प्रकार जैन शिक्षा पद्धति का अनुशीलन करने पर हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं : (१) प्राचीन भारत में ब्राह्मण और श्रमण शिक्षा पद्धतियों का समानान्तर रूप में विकास हुआ। (२) उक्त पद्धतियों में कतिपय समानताएँ होते हुए भी दोनों में अनेक मौलिक अन्तर थे। (३) ब्राह्मण शिक्षा पद्धति के वैदिक युग में शिक्षा का चरम लक्ष्य स्वर्गप्राप्ति था किन्तु श्रमण-पद्धति में शिक्षा का चरम उद्देश्य मोक्षप्राप्ति था। उपनिषद्काल में ब्राह्मण शिक्षा पद्धति में भी मोक्षप्राप्ति को चरम लक्ष्य मान लिया गया। ब्राह्मण शिक्षा पद्धति में शिक्षा प्रवृत्तिमूलक थी जबकि श्रमण शिक्षा निवृत्तिमूलक । ब्राह्मण शिक्षा में शिक्षा के केन्द्रबिन्दु ऋषि थे। उनके आश्रम ही शिक्षा के केन्द्र थे । श्रमण-पद्धति में श्रमण या साधु शिक्षा के केन्द्र अवश्य थे किन्तु आचार-विषयक नियमों के कारण वे एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रह सकते थे इसलिए वे एक चलते-फिरते शिक्षायतन थे किन्तु आश्रम नहीं थे। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में गौतम बुद्ध ने बौद्धधर्म की स्थापना की। उसके फलस्वरूप बौद्ध शिक्षा पद्धति का विकास हुआ । (८) श्रमण पद्धति में उत्तरकाल में गुहागृह, तीर्थक्षेत्र, चैत्यालय, जिनालय, निषधि, मठ, विहार, स्वाध्याय शाला, विद्यामंडप आदि संस्थाओं का विकास हुआ और ये जैन शिक्षा के केन्द्र बने । जैन शिक्षा मूलत: मोक्षमूलक थी किन्तु उसका उद्देश्य मानव व्यक्तित्व का समग्र विकास था। इसलिए शिक्षा के विषयों में जीव और जगत् को केन्द्र बना कर सम्पूर्ण प्राणि-विज्ञान तथा जड़ जगत के सम्पूर्ण विषयों को समाहित किया गया। जैन शिक्षा पद्धति में पाँच परमेष्ठी गुरु माने गये हैं, इनमें उपाध्याय को शिक्षा का अधिष्ठाता माना गया है। जैन साधु-शिक्षक स्वयं अनगार होने के कारण वैदिक ऋषियों की तरह शिष्य के आवास आदि व्यवस्था का दायित्व अपने ऊपर नहीं लेता था। इसी प्रकार शिक्षा समाप्ति के बाद शिष्य से दक्षिणा आदि भी नहीं लेता था। शिक्षा विधि और शिक्षा के माध्यमों में भी जैन शिक्षा पद्धति की अपनी विशेषताएँ थीं। शिक्षा विधि के अन्तर्गत मूलतः प्रमाण, नय और निक्षेप ये तीन विधियाँ थीं। इनकी अवान्तर पद्धतियाँ अनेक थीं। जैन आचार्यों ने मुख्य रूप से सदा लोकभाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया । उन्हीं भाषाओं को साहित्यिक स्वरूप देकर उनमें ग्रन्थों की रचना की। इन भाषाओं को जन सामान्य की भाषा होने के कारण प्राकृत कहा गया तथा विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार इनके अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि नाम दिये गये। बाद में यही भाषाएँ अपभ्रंश हुई और राजस्थानी, गुजराती, मराठी, मगही, मैथिली, भोजपुरी आदि के रूप में विकसित हुईं। (१४) संस्कृत को भी जैन शिक्षकों ने शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाया तथा संस्कृत में विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की। (१५) जैन आचार्यों ने शिक्षा मनोविज्ञान का सूक्ष्म विवेचन किया है । जैन शिक्षा पद्धति पर प्रस्तुत निबन्ध तैयार करते समय जो तथ्य सामने आये उनके आधार पर यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि इस विषय में अनुसंधान कार्य की व्यापक सम्भावनाएँ तथा विस्तृत क्षेत्र है। ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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