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________________ जैन-संस्कृति में ब्रह्मचर्य एवं आहार-शुद्धि ४३ 00 असीम वासनाओं को सीमित करने का मार्ग है। पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ने का कदम है । वासना का अनियन्त्रित रूप आत्मा का पतन है। विवाह वासना को नियन्त्रित करने का एक साधन है। यह एक मलहम (Ointment) है । इसका प्रयोग घाव ठीक करने के लिए किया जाता है। परन्तु घाव ठीक हो जाने पर कोई भी अपने शरीर पर मलहम उपयोग नहीं करता। इसी तरह विवाह भी वासना के उद्दाम वेग को रोकने के लिए, विकारों की व्याधि को क्षणिक उपशान्त करने के लिए है न कि उसे बढ़ाने के लिए। दाम्पत्य जीवन भी मर्यादित हो, अमर्यादित नहीं। उद्दाम वासनाओं का मूल उद्गम स्रोत मानव-मन रहा है, पशुओं में भी वासना की झलक पाई जाती है परन्तु वह प्राकृतिक ढंग से उपशान्त होती है। आज के मनोवैज्ञानिकों ने मन को सभी का मूलभूत कारण माना है। अस्वस्थ मन अनेक आधि-व्याधि-उपाधियों का कारण है। मनोविज्ञान के अनुसार मन के तीन भेद किये जाते हैंचेतन मन (Conscious), अचेतन मन (Unconscious) और चेतनोन्मुख मन (Pre-conscious)। डॉ० फ्रायड (Freud) के अनुसार मानव-जीवन के समस्त व्यवहार एवं क्रियायें चेतन मन से ही की जाती है। अचेतन मन हमारे पुराने अनुभवों की महानिधि के समान है। मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्तियाँ अचेतन मन में ही रहती है। विस्मृत अनुभव और अतृप्त वासनाएँ भी अचेतन मन में ही रहती है। अचेतन मन क्रियात्मक मनोवृत्तियों का उद्गम-स्थल है । मन का वह भाग जहाँ पर चेतना के समय आने पर विचार-वासनाएँ ठहरती हैं चेतनोन्मुख मन है। मनोवैज्ञानिकों ने, मन की मूलशक्ति क्या है और उसका स्वरूप क्या है, इसको अपने अनुभवों के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। डॉ० फ्रायड ने मानव-मन की मूलशक्ति को काम एवं वासनामयी माना है। मानव-जीवन की मूल इच्छा कामेच्छा है। यही इच्छा अनेक प्रकार के भोगों में परिणित हो जाती है । सभ्यता और संस्कृति का विकास, इसी काम इच्छा के अवरोध (Inhiatition), मार्गान्तरीकरण (Redirection), रूपान्तर (Transformation) अथवा शोध (Sublimation) में है। इस शक्ति के अत्यधिक दमन और अत्यधिक प्रकाशन में मनुष्य अपने स्वरूप को भूल जाता है। वासना का सम्यक् संयमन ही शुद्ध ब्रह्मचर्य है । वासना का दमन करने की अपेक्षा, विवेक के प्रकाश में, उसका ऊर्वीकरण, रूपान्तर, शमन और शोधन हो तो वह अधिक फलदायी हो सकती है । कामातुर तुलसी दास, सन्त तुलसीदास बन जाते हैं । काम का भक्त तुलसी, राम का भक्त बन जाता है। इसमें तुलसी ने काम का दमन नहीं किया अपितु उस शक्ति का शोधन करके, उसका ऊर्वीकरण करके साहित्य की श्रेष्ठतम कृतियां संसार के सामने प्रस्तुत की, निश्चय ही वे अद्भुत हैं। जैनशासन के उन्नायक कामविजेता आर्य स्थूलभद्र ने अपने जीवन की ज्योति से ब्रह्मचर्य की साधना को सदा के लिये ज्योतिर्मय बना दिया । आचार्य हेमचन्द्र ने, स्थूलभद्र के जीवन के सम्बन्ध में लिखा है कि वे योगियों में श्रेष्ठ योगी, ध्यानियों में श्रेष्ठ ध्यानी और श्रेष्ठ तपस्वी थे। उनकी ब्रह्मचर्य की अमर साधना से प्रभावित हो पाटलीपुत्र की सुप्रसिद्ध कोशा वेश्या अब्रह्मचर्य के पाप से हटकर ब्रह्मचर्य की पुण्यमयी शरण में पहुँच जाती है। यह है ब्रह्मचर्य योग की साधना का अद्भुत प्रभाव । ब्रह्मचर्य की साधना, मन, वचन और तन तीनों से सम्पन्न हो तभी उसका जीवन सुखद, शान्त और मधुर बन सकता है। ब्रह्मचर्य की साधना से जैसे-जैसे वीर्यशक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति भी बढ़ती है। वीर्य शरीर में कैसे तैयार होता है ? इसके लिये बताया गया कि, जैसे एक औंस इत्र (Scent) तैयार करने में ८७५२ रत्तल गुलाब के फूल नष्ट हाते हैं उसी प्रकार वीर्य की एक बूंद बनने में काफी पदार्थों का विलय होता है। इसीलिये अन्वेषकों ने कहा "मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं बिन्दु धारणात् ।" वीर्य ही प्राणशक्ति है और उसके कारण ही शरीर प्राणवान्-सबल बनता है अतएव वीर्यरक्षा जीवन है और वीर्यपात मृत्यु ! वीर्यरक्षा ब्रह्मचर्य से ही संभव है। आहार-शुद्धि और ब्रह्मचर्य भोजन और ब्रह्मचर्य का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। आयुर्वेदशास्त्र में कहा है कि मनुष्य के भोजन का प्रभाव उसके विचारों पर पर्याप्त रूप में पड़ता है। जैन महर्षियों ने आहार और आहार-शुद्धि पर गम्भीर एवं व्यापक रूप में लिखा है। आहार के अच्छे-बुरे प्रभाव का सम्बन्ध शरीर तक ही नहीं है बल्कि शरीर में व्यापक रूप से व्याप्त मन के साथ भी प्रगाढ़ सम्बन्ध है। मन का तादात्म्य आत्मा के साथ है। अतः आहार का असर आत्मद्रव्य पर भी पड़ता है। आहार-शुद्धि के विषय में छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा गया है कि आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है । सत्त्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल बनती है। स्मृति ताजी बनी रहती है। स्मृति के लाभ से अर्थात् जागरूक अमूढज्ञान की प्राप्ति से मनुष्य की सब ग्रंथियाँ खुल जाती हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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