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________________ ४२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड अरविन्द पुष्प उ स्वयम्भूरमण बुहा उत्कृष्ट है, अर्थात् ब्रह्मचर्य भगवान है। वह ग्रह-गण-नक्षत्र-ताराओं में चन्द्रमा के समान है। चन्द्रकान्त मणि, मोती प्रवाल व पद्मराग आदि रत्नों के उत्पत्ति स्थानों में समुद्रवत् है अर्थात् जैसे समुद्र में रत्न उत्पन्न होते हैं वैसे ब्रह्मचर्य भी अन्यान्य व्रतों का उत्पत्ति स्थान है। जैसे मणियों में वैडूर्य श्रेष्ठ है, भूषणों में मुकुट प्रवर है, वस्त्रों में क्षौम युगल (बहुमूल्य रेशमी वस्त्र) मुख्य है, पुष्पों में अरविन्द पुष्प उत्कृष्ट है, चन्दनों में गोशीर्ष प्रकृष्ट है, औषधियुक्त पर्वतों में हिमवान् श्रेष्ठ है, नदियों में सीतोदा नदी बड़ी है, समुद्रों में स्वयम्भूरमण बृहत्तम है तथा हाथियों में ऐरावत्, स्वर्गों में ब्रह्मस्वर्ग, दानों में अभयदान, मुनियों में तीर्थकर और वनों में नन्दनवन जैसे उत्कृष्ट है, वैसे व्रतों में ब्रह्मचर्य सर्वश्रेष्ठ हैं। इसी प्रश्नव्याकरण सूत्र में पुनश्च कहा गया है : "जम्बू ! एत्तो य बंभचेरं तव-नियम-नाण-दसण-चरित-सम्मत्त विणयमूलं" हे जम्बू ! यह ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन-चारित्र सम्यक्त्व और विनय का मूल है। “एगमि बंभचेरे, जंमिय आराहियंमि, आराहियं वयमिणं, सम्वं, सीलं तवो य, विणयो य, संजमोय खंती, गुत्ती, मुत्ती । तहेव य इहलोइय-पारलोइय-जसे य कित्ती य पच्चओ य तम्हा निहएण बंभचेरं चरियव्वं ।" अर्थात् एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर, शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, निर्लोभता, गुप्ति आदि सभी व्रतों-गुणों की आराधना हो जाती है। इसी प्रकार इहलोक-परलोक में यश, कीर्ति और विश्वास की प्राप्ति होती है, अतः निश्चल भाव से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये । ब्रह्मचर्य तपों में उत्तम तप है-“तवेसु वा उत्तम बंभचेर.... सूत्रकृतांग ।" ब्रह्मचर्य से देवता अमर बन जाते हैं । अथर्ववेद में नेता के लिये ब्रह्मचारी होना आवश्यक माना है। ऐतरेय उपनिषद् में कहा है-शरीर के समस्त अंगों में जो यह तेजस्विता है वह वीर्यजन्य ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-"जो स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखते हुए भी विकार नहीं लाते वे ब्रह्मचारी हैं। महात्मा गांधी ने कहा है-- 'ब्रह्मचर्य का अर्थ है समस्त इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण और मन-वचन-कृत्य द्वारा लोलुपता से मुक्ति । आत्मा की शुद्ध परिणति ही परमात्म ज्योति है, परब्रह्म है, परमधर्म है, अनन्तसत्य की सिद्धि है। इसे प्राप्त करने की साधना का नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना मानव जीवन की चरम साधना ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना में समाहित है। शुद्ध साधना का सिंहद्वार ब्रह्मचर्य ही है। ब्रह्मचर्य की साधना अन्दर और बाहर दोनों क्षेत्रों में चलती है। इसकी साधना का एक ही मार्ग है, कि हम अपनी इन्द्रियों, मन और शरीर को आत्मा के केन्द्र पर ले जाये, अपने समस्त व्यापारों को आत्मा में ही केन्द्रीभूत कर ले। जब आत्मा की समस्त शक्तियाँ केन्द्रित हो जाती है तब ब्रह्मचर्य की शक्ति बढ़ जाती है । यह केन्द्रीकरण जितना-जितना मजबूत होता जाता है, उतनी-उतनी ब्रह्मचर्य की शक्ति में अभिवृद्धि होती चली जाती है। ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य की साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिये, इन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रह की अत्यन्त आवश्यकता है। महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन में ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधकों को, इन्द्रियजन्य भोगों की आसक्ति से और उनके विषयों की लालसा से बचते रहने का आदेश दिया है। वासना, विकार एवं विषयेच्छा आत्मा के शुद्ध भावों की विनाशक है, अतः जिस समय आत्मा के परिणामों में मलिनता आ जाती है, उस समय ब्रह्मज्योति स्वतः ही धूमिल पड़ जाती है । ब्रह्मवत की साधना, वासना के अन्धकार को समूलतः विनष्ट करने की साधना है। वासना आत्मा का सब से भयंकर एवं खतरनाक शत्रु है। वासना हिंसा है, वासना ज्वाला है और वह आत्मा को जलाती है। भगवान महावीर ने साधना के दो रूप बताये हैं-(१) वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण और वासनाओं का केन्द्रीकरण; इसे आगम में पूर्ण ब्रह्मचर्य और आंशिक ब्रह्मचर्य भी कहा गया है। जब एक कुशल कारीगर तीनों ओर से मजबूत पहाड़ियों से घिरे हुए स्थल को एक ओर दीवार बनाकर (Dam) बाँध का रूप देता है, साथ ही उसमें कई द्वार भी बनाता है ताकि उससे अनावश्यक पानी निकाला जा सके और बाँध की सुरक्षा के लिए, उसे खतरा पैदा न हो, उसकी क्षमता के अनुसार उसमें पानी रखते हैं। अनावश्यक पानी का प्रबल वेग कभी दीवार को भी तोड़ सकता है। मानव मन के महासरोवर की भी यही स्थिति रही है। वासना के प्रवाह को पूर्णतः नियन्त्रण में रखना साधक का परम कर्तव्य है परन्तु उसे देखना है अपनी क्षमता कितनी है । अगस्त्य ऋषि की भाँति, वासना के समुद्र को पीकर पचा सके तो यह आत्म-विकास के लिए सुवर्ण अवसर है। परन्तु यदि वह वासनाओं पर पूरा नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं रखता है, तो प्रवहमान वासना के प्रवाह को केन्द्रित करके कुछ नियन्त्रित करके भयंकर बर्बादी से अपने को बचा लेता है। जैनदृष्टि से विवाह वासनाओं का केन्द्रीकरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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