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________________ Jain Education International ૪૪ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड आहारशुद्ध सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः, स्मृति लम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः । - छन्दोग्योपनिषद् ७/२५१ विश्व में भोजन की अच्छी-बुरी बहुत-सी चीजें मौजूद हैं। अच्छी चीजें जीवन के लिये उपयोगी हैं और बुरी चीजें अनुपयोगी। आहार-शुद्धि के लिये भोजन की अच्छाई-बुराई का दृष्टिकोण स्वादपूर्ति के रूप में नहीं होना चाहिये अपितु उसका उद्देश्य, जीवन निर्माण के लिये तथा शरीर की क्षति और दुर्बलता की पूर्ति के रूप में हो । जहाँ यह दृष्टि है वहाँ ब्रह्मचर्य की विशुद्धि रहती है । जहाँ यह दृष्टि नहीं रहती, वहाँ जीभ निरंकुश होकर रहती है, मिर्चमसालों की ओर लपकती है । कभी-कभी सीमा से अधिक खा लिया जाता है । तामसिक भोजन और सात्त्विक भी मर्यादा से अधिक खा लेने से शरीर का रक्त खौलने लगता है और शरीर में गरमी आ जाती है। शरीर में गरमी आ जाने पर मन में गरमी आ जाती है । मन में गरमी आ जाती है तो साधक भान भूल जाता है । तब साधना के सर्वनाश का दारुण दृश्य उपस्थित हो जाता है । 1 आज मानव ने स्वाद के लिये अनेकविध आविष्कार कर लिये हैं। भोजन के भाँति-भाँति के रूप तैयार कर लिये हैं। शरीर के लिये नहीं, जीभ के स्वाद के लिये ही तैयार किये हैं। विविध प्रकार के अप्राकृतिक खाद्य-पदार्थ, पेय-पदार्थ के सेवन से आज घातक बीमारियों का जाल-सा फैल गया है। तकनीकी युग का मानव, खाने के चक्कर में इतना उलझ गया है कि अपने ही शरीर में इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है, समझने-जानने के लिये उसके पास समय नहीं | हॉटेल्स, रेस्तोराँ लॉज आदि सभी अनेक व्याधियों के अड्डे बन गये हैं । आज का मानव रेडिमेड चीजें अधिक पसन्द करता है अतः बाजारू खाने-पीने के पदार्थ खरीदकर अपने स्वास्थ्य का नुकसान अपने हाथों ही कर रहा है परन्तु इसका उन्हें तनिक भी ध्यान नहीं है। चरक संहिता में स्पष्ट कहा है कि विरोधी आहार का सेवन नहीं करना चाहिये। इसके देशविरुद्ध कालविरुद्ध अग्निविरुद्ध मात्राविरुद्ध कोष्ठविरुद्ध अवस्थाविरुद्ध एवं विधिविरुद्ध आदि अनेक भेद हैं । विरोधी आहार से शक्ति का ह्रास होता है । जो शक्ति भोजन से प्राप्त होती है उसी भोजन से शक्ति का ह्रास भी होता है । भोजन के भी अपने कुछ विधान हैं। भोजन लेते हैं जीवन चलाने के लिये । महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिये जीवन धारण करते हैं । वह उद्देश्य भी तीन प्रकार का है-चेतना का विकास, चेतना का ऊर्ध्वगमन, चेतना का उन्नयन । इन्हीं से ब्रह्मचर्य की साधना संभव है । साधना में बाधक न बने, भोजन में हमें उन्हीं तत्त्वों को ग्रहण करना है । भोजन में किये जाने वाले पदार्थों से यदि वासनाएँ उत्तेजित होती हैं, विकार या अन्य बुरी भावनाएँ जन्म लेती हैं तो साधना आगे बढ़ नहीं पायेगी । मस्तिष्क भारी होगा। जब तक यह भारमुक्त नहीं होता तब तक ध्यानयोग की साधना, ब्रह्मचर्ययोग की आराधना नहीं हो पायेगी । मस्तिष्क का भारमुक्त होना आमाशय, पक्वाशय और मलाशय की शुद्धि पर निर्भर है। इनकी शुद्धि के लिये भोजन और उसकी मात्रा पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है । स्वादु, स्निग्ध, भारी, विकारवर्धक आहार मनुष्य के शरीर में गर्मी पैदा करता है, उत्तेजना बढ़ती है । अतः आग में ब्रह्मचर्य की साधना के लिये ब्रह्मचारी को नित्य सरस आहार करने की मनाई है। इस प्रकार के आहार से वासना के उदय से, कभी उन्माद की स्थिति भी आ जाती है। ब्रह्मचारी को पूर्ण जागृति लानी होती है । प्राचीन समय में संत, ऋषि, महर्षि, तपस्वी जिनका आहार-शुद्धि की ओर ध्यान रहता था, उनकी साधना में ब्रह्मचर्य का तेज भी चमकता था । उनके ब्रह्मतेज से देव देवी भी उनके चरणों में झुकते थे । साधक को यदि ब्रह्मतेज को अक्षुण्ण रखना है तो अवश्य ही उन्हें आहार-विहार पर आवश्यक नियंत्रण रखना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार भोजन हमारे स्वभाव, रुचि और विचारों का निर्माता है। गीता में मानवीय प्रकृति को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है— आयु तत्वबलारोग्यसुखप्रीति कट्वम्ललवणात्युष्ण, आहाराराजसस्येष्टा, विवर्धना । रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या, आहारा: सात्विकप्रियाः ॥ ८ ॥ तीक्ष्ण, रुक्षविदाहिनः । दुःखशोकभयप्रदाः ॥६॥ च यत् । तामसप्रियम् ॥ १०॥ यातयामं गतरसं उच्छिष्टमपि चामेध्यं पूति- पर्युषितं भोजनं - गीता अ. १७ मनुष्य का आहार सात्त्विक, राजस और तामस के भेद से तीन प्रकार का है- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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