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________________ भारतीय साधना पद्धति में गुरुतत्व का महत्व १५. . की। आधुनिक युग में भी श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, महर्षि अरविन्द, महर्षि रमण जैसे मूर्धन्य मनीषियों ने साधना के क्षेत्र में सद्गुरु का महत्त्व सिद्ध किया है। सत्य की अन्वेषणा करने वाले शिष्य का संशय नष्ट हो जाता है, वह कर्मक्षय करता है, अविद्या और अहंकार का भंजन कर सद्गुरु उसे विवेक का संबल प्रदान करता है। एतदर्थ ही गीर्वाण गिरा के यशस्वी कवि ने सद्गुरु का महत्व प्रतिपादन करते हुए कहा है "भिद्यते हृदयग्रंथिः, छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि, तस्मिन् दृष्टे परापरे ॥ तात्पर्य यह है कि विवेक से हृदयग्रंथि का छेदन हो जाने से निष्ठा पनपती है, संपूर्ण सन्देह नष्ट हो जाते हैं। कर्मों का क्षय हो जाने से द्रष्टा और दृश्य का सम्बन्ध जुड़कर आत्मा की सहज स्थिति और स्वरूप रूप जने सम्यक्ज्ञान है वह उपलब्ध हो जाता है। यह है सद्गुरु की महिमा । व्यवहार में सद्गुरु तराजू की तरह और परमार्थ में गंगा की निर्मल धारा की तरह शिष्य का उद्धार कर सकता है। एतदर्थ ही सद्गुरु को शिष्यों में सद्गुणों का आरोपण करने के कारण उन्हें ब्रह्मा कहा है, शिष्य के सद्गुणों का संरक्षण करने के कारण उन्हें विष्णु कहा है और शिष्य में रहे हुए दुर्गुणों को नष्ट करने के कारण उन्हें शिवशंकर कहा है। सद्गुरु वस्तुतः साक्षात् परमब्रह्म है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में बताया है जैसे भक्त भगवान के साथ भक्ति करता है वैसे ही शिष्य को गुरु के प्रति हार्दिक भक्ति करनी चाहिए जिससे अध्यात्म ज्ञान की उपलब्धि होती है।' सन्त कवि कबीर के समक्ष एक महान समस्या उपस्थित हो गयी कि गुरु और गोबिन्द यदि एक ही साथ उपस्थित हो जायें तो किसके चरणों में प्रथम नमस्कार करना चाहिए। उन्होंने चिन्तन की गहराई में डुबकी लगायी। उन्हें स्पष्ट अनुभव हुआ कि प्रथम सद्गुरुदेव को नमन करना चाहिए। क्योंकि उन्हीं के कारण गोविन्द से साक्षात्कार हुआ है। सद्गुरु ने ही वह दिव्य दृष्टि प्रदान की जिससे गोविन्द का साक्षात्कार हुआ।' हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा—कि मैं ज्ञानबोध प्रदान करने वाले शंकररूपी सद्गुरु को वन्दन करता हूँ, जिनके आश्रय को पाकर वक्र चन्द्रमा भी सभी के द्वारा अर्चनीय होता है। सद्गुरु जिसके संरक्षक हों उसे अन्य किसी की भी चिन्ता नहीं। सद्गुरु के अमृतोपम उपदेश से मोहान्धकार विनष्ट हो जाता है। सद्गुरु के पादारविन्दों से धूल भी फूल की तरह सुन्दर और सुगंधित बन जाती है। सद्गुरु का अनुराग ऐसी संजीवनी बूटी है जिससे भव-रोग नष्ट हो जाते हैं। उनके पुनीत स्मरण से ही हृदय में दिव्य आलोक प्रस्फुटित होता है। तुलसीदासजी ने 'विनयपत्रिका' में गुरु प्रदत्त साधना का महत्व बताते हुए लिखा है-इस कलिकाल में सद्गुरु ही ऐसे हैं जिनके द्वारा प्रतिपादित भक्ति-मार्ग ही साधक के लिए योग्य मार्गदर्शक है। सद्गुरुदेव के मंगलमय आशीर्वाद से सिद्धि प्राप्त होती है। सन्त चरणदास सद्गुरु के महत्त्व पर चिन्तन करते हुए लिखते हैं-परमेश्वर की सौ वर्षों तक सेवा करते रहने की अपेक्षा सद्गुरु की चार क्षण तक सेवा करना भी अधिक श्रेष्ठ है । मलूकदास का मन्तव्य है कि-आवागमन से मुक्त कराने वाले सद्गुरु है। वे जन्म-जन्मान्तरों की मनोकामना को परिपूर्ण करते हैं । अतः वे परमेश्वर से भी श्रेष्ठ हैं। हिन्दी साहित्य के कवियों में सूरदास का मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने कृष्ण-लीला पर सवा लाख पद लिखे । किसी जिज्ञासु ने उनसे पूछा-आपने अपने गुरु वल्लभाचार्य का गुण-कीर्तन क्यों नहीं किया ? उत्तर में उन्होंने कहामैंने जो कुछ भी वर्णन किया उसका सम्पूर्ण श्रेय सद्गुरुवर्य को ही है। मैंने सद्गुरु और श्रीकृष्ण को कभी पृथक नहीं देखा । मुझे गुरुचरणों में पूर्ण विश्वास है । उनके अभाव में मुझे सर्वत्र अन्धकार दिखायी देता है । सद्गुरु के अतिरिक्त विश्व में कोई भी उद्धारक नहीं है । इस तरह सूरदास ने सद्गुरु को भगवत्स्वरूप समझा है । सद्गुरु भवसागर में डूबते हुए शिष्य को बचाता है और उसका उद्धार करता है। भक्त कवयित्रियों में मीरा का नाम सर्वोच्च है । 'मीरा पदावली' में वह सद्गुरु के सम्बन्ध में लिखती हैकि मैं मोह की निद्रा में सोई हुई थी। कृषालु सद्गुरु ने मुझे जाग्रत किया । मुझे आध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। मेरे सद्गुरु गुणों के सागर हैं। उन्होंने मेरे अवगुणों पर ध्यान न देकर मुझ पर स्नेह की सदा वृष्टि की। मुझे भवसागर से पार लगाया। अब मुझे गुरुचरणों के अतिरिक्त अन्य किसी की भी इच्छा नहीं है। सद्गुरु की कृपा से ही मुझे गिरधारी के दर्शन हुए हैं । हे सद्गुरु ! तुम मुझे छोड़कर कभी मत जाना ।" क 11 ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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