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________________ Jain Education International १६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : सप्तम खण्ड कवि सुन्दरदास ने भी सद्गुरु का महत्त्व बताते हुए लिखा है - सद्गुरु अपने शिष्य पर कभी रुष्ट नहीं होता और न कभी तुष्ट होता है । न वह किसी का पक्ष लेता है और न किसी पर ईर्ष्या ही करता है । वह प्रतिपलप्रतिक्षण ब्रह्मभाव में लीन रहकर चिन्तन, मनन, निदिध्यासन करता रहता हैं । परब्रह्म के अतिरिक्त सद्गुरु के मन में और कोई विचार नहीं होता। उनके सान्निध्य में रहनेवाले की आधि-व्याधि और उपाधियाँ नष्ट हो जाती हैं। सद्गुरु के प्रसाद से वैर-विरोध नष्ट होकर उसका सबके प्रति प्रेम उत्पन्न होता है। योगशास्त्र की सारी युक्तियाँ और प्रयुक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं और वह सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लेता है ।" सद्गुरु की कृपादृष्टि से साधक को परा और अपरा विद्या की उपलब्धि होती है । 'बिन गुरु होई न ज्ञान' यह कथन यथार्थं है। गुरु केवल ज्ञान ही नहीं सिखाता अपितु योग उपासना, तंत्र व भक्ति की साधना का रहस्य भी बताता है और साधना किसप्रकार करनी चाहिए उसका प्रैक्टिकल प्रयोग भी सिखाता है। शिष्य को चाहिए कि अत्यन्त नम्र होकर सद्गुरु से अपने मन की जो भी शकाएँ हों उनका निरसन करे। मन में शंकाएँ रखना उचित नहीं है । सद्गुरु ज्ञानमूर्ति है। उसमें अनुभूति की प्रधानता होती है । अतः निरर्थक अहंकार में न उलझ कर जिज्ञासु बनकर वह ज्ञान प्राप्त करे । एतदर्थ ही कबीर ने कहा- "साधो, सो सद्गुरु मौहि भावे" । सद्गुरु अपने शिष्य का सदा विकास चाहता है। वह "शिष्यादिच्छेत् पराजयम्" की भावना रखता है। "गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं" कहा गया है। बिना सद्गुरु के भवार्णव को कोई भी पार नहीं कर सकता। सद्गुरु की महिमा अकथनीय और अवर्णनीय है । बौद्ध तन्त्र साहित्य में करुणा को शिव और प्रज्ञा को शक्ति माना है। इसी तन्त्रमार्ग से विकसित होकर नवीं सदी में सहजयानी सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ जिसने शंकर पार्वती स्वरूप को स्वीकार किया। पार्वती को सृष्टि के बीज के विवरण को जानने की जिज्ञासा हुई तब शिवशंकर ने उसकी जिज्ञासा का समाधान किया। वही तत्त्वज्ञान नाथ सम्प्रदाय के नाम से विश्रुत हुआ । सहजयानी पंथ में संसार का स्वरूप भी सहज समझा गया। सरहपाद ने बताया कि इस सहजतत्त्व को मौन से ही जाना जाय और गुरुमुख से सुना जाय । नाथ सम्प्रदाय में गुरु का गौरवपूर्ण स्थान है । सारी मध्ययुगीन साधनाओं और उनसे निःसूत भक्ति सम्प्रदायों में गुरु-भक्ति और गुरुमुख से प्राप्त ज्ञान-परम्परा को स्वीकार किया गया। यह कहा जा सकता है कि दसवीं सदी तक गुरुभक्ति का विकास हो चुका था । सरहपाद ने 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' गीतों के माध्यम से नाम संकीर्तन को सहज सुलभ बनाया और नृत्य -- -गीतों के माध्यम से नाम भक्ति का प्रसार किया। इस पंथ में बौद्धतंत्र की करुणा और प्रज्ञा को महत्वपूर्ण माना । यह कहा जा सकता है कि नाथ सम्प्रदाय में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से बौद्ध तन्त्र के अनेक आचार-विचार तथा तत्त्वज्ञान के सूत्र अनुस्यूत हैं । नाथ सम्प्रदाय में सद्गुरु पर अत्यधिक निष्ठा है। नाथ सम्प्रदाय से भागवत, वारकरी सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ । इनमें तथा दत्त एवं समर्थ सम्प्रदाय के साधना मार्ग में भी सद्गुरु का महत्त्व एक स्वर से स्वीकार किया गया है । महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त एकनाथ ने लिखा है--यदि ग्रन्थ पढ़कर के शिष्य का उद्धार हो जाता तो बड़े-बड़े सद्गुरु क्यों अवतरित होते ? ग्रंथों को पढ़कर जो शंकाएं अन्तर्मानस में उद्बुद्ध होंगी उनका समाधान ग्रंथ नहीं कर सकते। उनका समाधान सद्गुरु ही कर सकते हैं। गुरु के अनेकों शिष्य होते हैं, पर शिष्यों के लिए गुरु एक ही होता है गुरुड या गुरुबाजी के विरुद्ध सदा स्वर बुलन्द होते रहे हैं पर खेद है कि शिष्य जो अनुचित कार्य करते हैं उनके सम्बन्ध में आज तक किसी ने कुछ नहीं लिखा। आधुनिक युग में विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय करने की अतीव आवश्यकता है । यह आवश्यकता बिना सद्गुरु के कोई पूर्ण नहीं कर सकता । जैन साधना पद्धति में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नमस्कार महामंत्र में गुरुतत्त्व की ही प्रधानता है । अरिहन्त और सिद्ध इन दो पदों में देव तत्त्व की प्रधानता है तो आचार्य, उपाध्याय और साधु में गुरुतत्त्व की प्रमुखता है । सर्वप्रथम अर्हत को नमस्कार किया गया है और उसके पश्चात् सिद्धों को । सिद्ध अशरीरी होने से देहधारी मानव को साक्षात् प्रेरणा प्रदान नहीं कर सकते । किन्तु अर्हत् देहधारी हैं इसलिए वे साक्षात् प्रेरणा देते हैं । अर्हत् पथप्रदर्शक हैं अतः उनका सर्वप्रथम स्थान है। एक दृष्टि से अर्हत् ही गुरु हैं, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के आचार्य या गणधर, संघ संचालन करते हैं उपाध्याय संघ के श्रमणों को पढ़ाते हैं, साधु विशिष्ट साधक होते हैं। एतदर्थ ही वे गुरु के रूप में उपास्य रहे हैं। तात्विक दृष्टि से गुरु का स्थान निमित्त और उपादान के सिद्धान्त से निःसृत है । जैन दर्शन में निश्चय नय की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपना उद्धार करने में समर्थ है। उसको अनन्त सामर्थ्य प्रदान करने वाला गुरु केवल निमित्त है । प्रत्येक साधक को अपनी प्रगति स्वयं ही करनी होती है। श्रमण भगवान महावीर जैस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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