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________________ 14...++++ ++++ +++++.. + + ++++ ++ + + + ++ ++ + + + + + + + ++++ + ++ ++ + +++++ ++ + + + ++++++ ++ भारतीय साधना-पद्धति में गुरुतत्त्व का महत्व -डा० न० चि० जोगलकर, (पूना) पारमार्थिक जीवन के विकास के लिए सद्गुरु तत्त्व की असीम आवश्यकता है। सद्गुरु के अन्तःकरण में परमात्मतत्त्व का दिव्य प्रकाश विद्यमान रहता है जिससे वह शिष्यों के अन्तःकरण में अज्ञान अन्धकार को दूर करने में सक्षम होता है। बिना सद्गुरु के पथ-प्रदर्शन के विकास संभव नहीं । जे. कृष्णमूर्ति जैसे आधुनिक चिन्तकों का यह भी मन्तव्य है कि आत्मज्ञान प्राप्ति हेतु गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु यह कयन एक दृष्टि तक ही सीमित है । सामाजिक विषमता और राजनीति के दुश्चक्रों के कारण मानव-जीवन में अशांति, मत्सर, द्वेष, संघर्ष के बादल उमड़-घुमड़ कर मंडराने लगते हैं। ऐसी विषम और विकट परिस्थिति में मानव जीवन का महत्त्व समझना अधिक कठिन हो जाता है। आध्यात्मिक शांति, निर्भयता और तत्त्वज्ञान को रहस्य का परिज्ञान कराने वाले सद्गुरु की आवश्यकता होती है । सद्गुरु अशान्त मानव को शांति का पुनीत पाठ पढ़ाता है । उसे जीवन का सही लक्ष्य बताता है । इसी कारण अतीत काल से ही सद्गुरु का महत्व प्रतिपादन किया गया है । उसकी गौरव गाथा गायी गयी है। ज्ञानदान देने वाले विद्यागुरु से लेकर मोक्ष प्रदाता सद्गुरु की महत्ता प्रतिपादन करने की आवश्यकता नहीं है । तथापि आधुनिक भौतिकवाद की चकाचौंध में भूले और बिसरे साधकों के अन्तर्मानस में यह प्रश्न अंगड़ाइयाँ लेने लगता है कि सद्गुरु की आवश्यकता क्यों है ? चिन्तन करने पर परिज्ञात होता है कि प्रत्येक जीव को किसी भी विषय, वस्तु या पदार्थ का परिज्ञान स्वत: नहीं होता। स्वयं का परिश्रम, साधना व अध्यवसाय होने पर भी गंभीर एवं तात्त्विक ज्ञान प्राप्ति के लिए किसी न किसी से सहायता लेने की आवश्यकता होती है । जो सुयोग्य और सुचारुरूप से उसका पथ प्रदर्शन कर सके । ऐसा महान् व्यक्ति सद्गुरु देव के अतिरिक्त अन्य कौन मिल सकता है ? सद्गुरु शिष्य का सही पथ-प्रदर्शन करता है, वह शिष्य की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करता है। कबीर जैसे विशिष्ट साधक जो आँखन देखी पर विश्वास करने वाले थे, वे भी कहते हैं : जाके गुरु भी आंधरा चरा खरा निरंध। अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़न्त ।। चिन्तकों का कहना है कि साधक की योग्य परीक्षा कर गुरु बनाना चाहिए जिससे साधक का आध्यात्मिक विकास सम्यक् प्रकार से हो सके । सत्यान्वेषण करने वाले जिज्ञासु को किसी योग्य जानकार सद्गुरु की आवश्यकता है। परीक्ष या अपरोक्ष ज्ञानोपलब्धि सद्गुरु प्रदत्त साधना से ही सम्भव है; क्योंकि सद्गुरु ही प्रथम स्वय सत्य का साक्षात्कार करता है, उसके पश्चात् शिष्य को अखण्ड सत्य के साक्षात्कार की पवित्र प्रेरणा प्रदान करता है। सद्गुरु द्वारा बतायी गयी राह पर चलते हुए साधकों ने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है। शिष्य को चाहिए कि सर्वप्रथम अहंकार का परित्याग करे और कर्तृत्वाभिमान को छोड़कर सद्गुरु का आश्रय ग्रहण करे। मन में जो भी शंकाएँ उद्बुद्ध हों उनका विनय के साथ सद्गुरु से निराकरण करे। यदि अन्तर्मानस में संशय बना रहा तो साधक का विनाश निश्चित है। "संशयात्मा विनश्यति" कहा गया है। एतदर्थ ही गीताकार ने कहा है-"श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः" । आत्मा परमात्मा आदि की गुरु-गंभीर गुत्थियाँ बिना गुरु पर श्रद्धा रखे सुलझ नहीं सकतीं। श्रद्धा के साथ इन्द्रियों पर संयम भी बहुत आवश्यक है । वीर अर्जुन श्रीकृष्ण के सत् शिष्य थे और मर्यादा पुरुषोत्तम राम वशिष्ठ के, शिवाजी रामदास के और चन्द्रगुप्त मौर्य चाणक्य के सत् शिष्य थे जिन्होंने गुरुओं के मार्गदर्शन पर चलकर सही प्रगति wain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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