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________________ Jain Education International ३३२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अन्धश्रद्धा का परिणाम मानकर त्याज्य मानने लगेगा तो वह उसकी भयंकर भूल होगी। किसी भी चीज को अच्छी या बुरी कहने के लिए प्रथम तो उसे देखने वाले व्यक्ति की विवेकक्षमता तथा उसके पश्चात् उस द्रष्टा की दृष्टि विशेष का भी विचार करना चाहिए । श्रीकृष्ण गोकुल से जब मथुरा में आये तब उन्हें देखने के लिए मथुरानिवासियों की भीड़-सी लगी । वृद्धों को वह दीनबन्धु लगा तो युवतियों को वह लक्ष्मीपति । बच्चों को वह गोपाल लगा तो कंस आदि को वही श्रीकृष्ण "काल" सदृश जान पड़ा। जिस प्रकार श्रीकृष्ण के एक ही व्यक्तित्व को विभिन्न लोगों ने अपनी-अपनी दृष्टियों से देखा उसी प्रकार हमारी भारतीय संस्कृति के समर्थक महापुरुषों तथा सन्तों द्वारा प्रतिपादित वाणी को भी विभिन्न दृष्टियों से देखा जा सकता है । यदि आप तटस्थ भावना से देखना चाहें तो स्पष्ट होगा कि किसी भी श्रेष्ठ महापुरुष ने आडम्बर, ढोंग-ढकोसला बाह्याचार, अन्धविश्वास, स्वार्थलोलुपता, पाप-पुष्य का क्रय-विक्रय, भगवान् के दाम्भिक भगत, आदि का समर्थन नहीं किया है। अपितु आज की बुद्धिवादी जनता के विचार ही प्रकारान्तर से उनके द्वारा प्रकट हुए हैं। यदि हम उन सन्तों के द्वारा प्रतिपादित तथ्यों को बुद्धिवादी दृष्टि से भी विचार करना चाहें तो दिखायी देता है कि उनकी दृष्टि में भी ईश्वर का रूप एक दिव्य तत्त्व ही था। ईश्वर मनुष्यों के हृदय में ही निवास करता है। मनुष्य को चाहिए कि वह इस तथ्य को पहचाने । जो मनुष्य अपने हृदय को पहचान सकता है। उसे ईश्वर की ओर जाने की सत्प्रेरणा स्वयं प्राप्त होती है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने "परहित सरिस धर्म नहि भाई" तथा "सियाराम मय सब जग जानि" इन सिद्धान्तों के द्वारा बताया है कि लोककल्याण ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है और सम्पूर्ण जगत में "सियाराम" अर्थात् उस दिव्य तत्व का समावेश रहता है । मनुष्य को चाहिए कि वह इस दिव्यतत्व का साक्षात्कार करे । अधिकांश सन्तों एवं महापुरुषों ने मनुष्य के उत्थान की ओर संकेत दिया है। शक्ति का सदुपयोग तथा 'दुरुपयोग करना उसी के हाथ में है। मनुष्य को चाहिए कि वह सदैव ज्ञान की ज्योति के प्रकाश में अपने हृदय में स्थित सद्गुणों को देखकर उसके विकसन की ओर प्रयत्नशील रहे । ज्ञान की ज्योति के प्रकाश में अज्ञान का अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है । मनुष्य अन्तर्मुख होकर स्वयं को पहचान ले । सत्य, विवेक, न्याय, परोपकार, स्वार्थत्याग, आत्मसन्तोष, दया, उदारता, आत्मविश्वास, सत्संग, विनयशीलता, ध्येयनिष्ठा, प्रेम आदि सद्गुणों का संबल लेकर यदि मनुष्य जीवन के पथ पर निर्भीकता के साथ निरन्तर चलता रहेगा तो निश्चय ही उसके जीवन का 'कंचन' होगा । अर्थात् वह अपनी अतुल कार्यक्षमता एवं असाधारण दिव्यशक्ति के द्वारा इस समाज में अमरता प्राप्त कर सकेगा । और अमरता का अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता है जिनमें 'दिव्यत्व' का साक्षात्कार हो । यही 'दिव्यत्व' साधारण मानव को देवता बना सकता है । देवता मनुष्य की एक आदर्श कल्पना है । परन्तु यह कल्पना निराधार अथवा यथार्थ से परे नहीं है । प्रयत्न करने पर मनुष्य उस कल्पना को साकार भी बना सकता है। कबीरदास जी ने एक स्थान पर लिखा है कस्तूरी कुण्डल बसे, मुगडे बन माहि ऐसे घटि घटि पीव है, दुनिया देखे नाहि ॥ जिस प्रकार कस्तूरी का अधिकारी मृग उसकी दिव्य सुगन्धि से प्रभावित होकर अज्ञानवश उसी की खोज में सम्पूर्ण वन- प्रदेश में मारा-मारा घूमता है उसी प्रकार हम मनुष्यों की स्थिति है, जो अपने ही भीतर निवास करने वाले ईश्वर अर्थात् दिव्यत्व को अज्ञानवश न जानने से उसकी प्राप्ति के लिए सारे संसार भर में भटकता रहता है । अतः मानव को चाहिए कि वह अपने भीतर छिपे हुए उस दिव्य तत्व को पहचान ले और "साधना" द्वारा अपनी निष्ठा एवं सद्गुणों के बल पर ऐसा अमर एवं लोकोत्तर कार्य करे जिससे वह स्वयं जनता में देवता का स्थान प्राप्त कर सके । इस प्रकार 'नर' करनी करे तो नर का 'नारायण' सहज रूप में बन सकता है । ⭑⭑ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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