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________________ जैनदर्शन में तत्त्व-चिन्तन ३३३ . SHA जैनदर्शन में तत्त्व-चितन डॉ. साध्वी धर्मशीला एम० ए०, पी-एच०डी० [परमविदुषी स्व० महासतीजी श्री उज्ज्वलकुमारी जी की सुशिष्या] भारतीय दर्शन में तत्त्व के सम्बन्ध में गहराई से विचार किया गया है। तत् शब्द से भाच अर्थ में 'त्व' प्रत्यय लगकर तत्त्व शब्द बना है। जिसका अर्थ है, उसका भाव-"तस्य भावः तत्वम्"। वस्तु के स्वरूप को तत्त्व कहा गया है। कि तत्त्वम् ? तत्त्व क्या है ? जिज्ञासा का यही मूल हैं । दर्शन के क्षेत्र में चिंतन-मनन का आरंभ तत्त्व से ही होता है। चाहे आस्तिक दर्शन हो, चाहे नास्तिक दर्शन हो-सभी दार्शनिक चिन्तकों ने तत्त्व शब्द पर विचार किया है । लौकिक दृष्टि से तत्त्व शब्द के अर्थ हैं-वास्तविक स्थिति, यथार्थता, सारवस्तु, सारांश । दार्शनिक चिंतकों ने तत्त्व शब्द के उक्त अर्थ को मानते हुए परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर-अपर, शुद्ध परम के लिए भी तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में भी तत्त्व शब्द को महत्वपूर्ण माना गया है। दार्शनिक और वैज्ञानिक चिंतन का मूल केन्द्र तत्त्व शब्द द्वारा अभिधेय कोई न कोई वस्तु है । तत्त्व एक शब्द है और प्रत्येक शब्द का प्रयोग निष्प्रयोजन नहीं होता है । उसका कुछ न कुछ अर्थ होता है। यह अर्थ वस्तु में विद्यमान किसी गुणधर्म या किसी न किसी क्रिया का ज्ञान कराता है। इसलिए शब्दशास्त्र की दृष्टि से तत्त्व शब्द का अर्थ है 'तद्भावस्तत्त्वम्', 'तस्य भावः तत्त्वम्' । अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप में विद्यमान है, उसका उस रूप में होना, यही तत्त्व शब्द का अर्थ है। शब्दशास्त्र के अनुसार प्रत्येक सद्भूत वस्तु को तत्त्व शब्द से संबोधित किया जाता है । जैनाचार्यों ने तत्त्व शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि तत्त्व का लक्षण सत् है अथवा सत् ही तत्त्व है। इसलिये वह स्वभाव से सिद्ध है। वैदिकदर्शन ने परमात्मा तथा ब्रह्म के लिए तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है । सांख्यदर्शन ने जगत् के मूल कारण के रूप में तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है। बौद्धदर्शन में स्कंध, आयतन, धातु इन तीनों को तत्त्व माना है। न्यायदर्शन ने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, आदि सोलह तत्त्वों को ज्ञानमुक्ति का कारण माना है। चार्वाकदर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच भूतों को तत्त्व कहा है। वैशेषिकदर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छह को तत्त्व माना है। सांख्यदर्शन में पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार आदि पच्चीस तत्त्व माने हैं। मीमांसादर्शन ने दो तत्त्व माने हैं। सभी दर्शनों ने अपनी-अपनी दृष्टि से तत्त्व का विवेचन किया है । सभी का मन्तव्य है कि जीवन में तत्त्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन और तत्त्व ये एक-दूसरे से संबंधित हैं । तत्त्व से जीवन को कभी भी पृथक् नहीं किया जा सकता। समस्त भारतीय दर्शन तत्त्व के आधार पर ही खड़े हैं। हमें यहाँ पर सिर्फ 'जैनदर्शन में तत्त्व-चिंतन' इस पर ही विचार करना है। जैनदर्शन में लोक-व्यवस्था का मूल आधार 'तत्त्व' माना है। जैन दार्शनिकों ने तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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