SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ईश्वर और मानव ३३१ . व्यक्ति भी यह स्वीकार करता है कि संसार में अवश्य ही ऐसी शक्ति है कि जो मानव के परे है । उस अगम्य एवं अलौकिक शक्ति को वह "दिव्य तत्त्व' मानकर अपना सिर झुकाता है। इसी दिव्य तत्त्व को परम्परा ईश्वर मानती आयी है। इस दिव्यतत्त्व का अस्तित्व उस प्राणतत्त्व वायु के समान है जिसकी अनुभूति सभी को होती है परन्तु इच्छा होने पर तथा लाख प्रयत्न करने पर भी उसके प्रत्यक्ष दर्शन सम्भव नहीं होते । यह 'दिव्यत्व' अनेक महापुरुषों में न्यूनाधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होता है । 'नर करनी करे तो नर का नारायण बन जाय' इस सिद्धान्त वाक्य का जन्म भी इसी भूमिका पर हुआ होगा। मानव-समाज में संतुलन रखने के लिए जिस प्रकार स्वर्ग और नरक की कल्पना की गयी है उसी प्रकार अपने-अपने अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार देवता-दानव के रूप भी वस्तुत: मनुष्य के ही विभिन्न रूप हैं । प्रत्येक मनुष्य के हृदय में सत् और असत् का अस्तित्व रहता है जब तक इन दोनों तत्वों का साधारण सन्तुलन किसी व्यक्ति में रहता है वह मानव की कोटि में रखा जाता है । जिन व्यक्ति विशेष में "असत्' का ही प्रभाव अधिक हो और परिणामस्वरूप वे ऐसे ही कार्य कर रहे हों कि जो असत् प्रवृत्ति का पोषण कर रहे हैं, वे 'दानव' की कोटि में रखे जाते हैं। इसी प्रकार जिन व्यक्ति विशेष में 'सत्' की मात्रा अधिक होती है और उनके सारे कार्य इसी प्रवृत्ति का पोषण कर उन्हें मनुष्य की साधारण धरातल पर से बहुत ऊपर उठा लेते हैं, उन्हें देवता की कोटि में रखा जाता है। इतिहास के पृष्ठ उलटने पर यह तथ्य सप्रमाण सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही देवतातुल्य व्यक्ति अपने कार्यों से "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्' इस सिद्धान्त का अनुगमन करते हैं और परिणामस्वरूप इनमें से ही कुछ व्यक्तियों में उस दिव्यत्व का साक्षात्कार हो जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य के सम्मुख दो मार्ग हैं । एक मार्ग उसे भौतिक प्रलोभनों में आकर्षित कर स्वार्थ व निंद्य कर्म की ओर ले जाता है। इस मार्ग को वाममार्ग भी कहा जा सकता है। इस मार्ग का अनुसरण करने पर मनुष्य को तात्कालिक सुख-सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है। मनुष्य अप्रामाणिकता, असत्य, अन्याय, अनाचार, अत्याचार, अविवेक आदि दुर्गुणों के बल पर धीरे-धीरे नृशंसता की ओर बढ़ने लगता है। वह पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, योग्य-अयोग्य का विचार तक नहीं कर सकता। उस पर कभी सत्ता का तो कभी सम्पत्ति का, कभी अधिकार का तो कभी अहंकार का अन्धत्व सवार रहता है जिसके परिणामस्वरूप उसकी विवेकक्षमता नष्ट-सी हो जाती है । ऐसे व्यक्ति अपनी शक्ति का अपने निजी स्वार्थ के लिए दुरुपयोग कर लेते हैं। यह मार्ग दानवता की ओर ले जाता है । इस मार्ग से जाने वाले व्यक्ति प्रारम्भ में उत्साही, आनन्दी एवं सुखी प्रतीत होते हैं परन्तु अन्त में अपने कुकर्मों के फलस्वरूप दुःखी ही रहते हैं। उन्हें वह चैन नसीब नहीं होता जो वे चाहते हैं। दूसरा मार्ग दक्षिण मार्ग है, जो मनुष्य को देवता की ओर ले जाता है। इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को प्रारम्भ में अनेक कठिनाइयों तथा परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है । एक विशिष्ट स्तर पर जाने के पश्चात् ही इस मार्ग को अद्वितीय एवं अलौकिक रूप ध्यान में आ सकता है । इस मार्ग से जाने वाले व्यक्ति प्रामाणिकता, सत्य, न्याय, सदाचार, विवेक आदि सद्गुणों के बल पर जनता में अपनी प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। प्रत्येक कार्य में वे सदसद्विवेक बुद्धि का उपयोग कर अत्यन्त निर्भीकता के साथ उसके लिए फिर चाहे अपना बलिदान भी देना क्यों बन पड़े, स्थिर रहते हैं । 'सर्वे सुखिनः सन्तु' का दृष्टिकोण वे स्वीकार करते हैं । स्वार्थवश तात्कालिक प्रलोभनों से अपने जीवन को सुखी करने का विचार उनके मन में नहीं आता । दूसरों की भलाई के लिए चाहे जितना त्याग करने की उनमें क्षमता होती है । ऐसे व्यक्ति भौतिक दृष्टि से भले ही सम्पन्न न दिखाई देते हो परन्तु उनमें आन्तरिक सामर्थ्य, तेजस्विता एवं आत्मविश्वास की कमी नहीं रहती। इन्हीं के बल पर वे स्वयं झुकते हैं और दुनिया को भी झुकाते रहते हैं । यह सत्य है कि इस मार्ग पर चलने वाले बहुत ही थोड़े व्यक्ति उस दिव्य अमृतकलश तक पहुँच सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे मनुष्य की श्रेणी से उठकर देवत्व की श्रेणी में परिगणित होने लगते हैं। इस मार्ग को स्वीकार करने वाले शेष अनेक लोग अपनी-अपनी कार्यक्षमता के अनुकूल फल पाते रहते हैं। यही मार्ग मानव को ईश्वर अर्थात् महामानव अथवा पूर्णमानव की ओर ले जाता है। ____ यह मनुष्य पर निर्भर है कि वह दानव की ओर जाना चाहता है अथवा देवता की ओर ! कहा जाता है कि देवता अमर रहते हैं । इसी प्रकार देवता की श्रेणी में जाने वाले मनुष्य भी अपने दिव्य कार्यों से अमर हो जाते हैं । पीछे से आने वालों के लिए वे आदर्शरूप सिद्ध होते हैं । हमारे आदरणीय एवं श्रद्धेय युगपुरुषों ने अपने अनुभवों को अमरवाणी के रूप में सदैव इसी दक्षिण मार्ग का समर्थन किया है । यदि कोई बुद्धिवादी व्यक्ति हर प्राचीन परम्परा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy