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________________ । ३३० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ++++ ++++++ammar++++in+ +++++10.0000+ma+rmirmirmirmirmireourmer ROHARIYAR यह सत्य है कि विज्ञान की सहायता से मानव ने आश्चर्यकारक एवं अद्वितीय कार्य किये हैं कि जिसकी कल्पना तक उसके पूर्व सम्भव न थी। संसार के अनेक रहस्यों का उद्घाटन करने में मनुष्य सफल रहा है। जो बातें एक समय अत्यन्त अगम्य एवं अलौकिक प्रतीत होती थीं, वे आज सुगम एवं साधारण लगने लगी है। मनुष्य के शरीर का महत्वपूर्ण अंश-हृदय भी स्थानान्तरित अथवा परिवर्तित कराने में मनुष्य सफल रहा है । और बातों का तो कहना ही क्या ? मनुष्य का भाग्य निर्धारित करने वाले चन्द्र, मंगल, गुरु आदि आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों पर भी मानव अपनी अद्भुत बुद्धिशक्ति से केवल पहुंच ही नहीं रहा है अपितु उन पर अधिकार भी कर रहा है। ऐसी स्थिति में यदि मानव में आत्मबल उत्पन्न हो और परम्परागत अन्धश्रद्धा से प्रचलित बातों के प्रति उसके मन में अनास्था या प्रश्न चिन्ह हो तो उसमें आश्चर्य नहीं है। मनुष्य ने सर्वप्रथम जब ईश्वर की कल्पना की होगी तब उसके सम्मुख निश्चय रूप से मानव को महामानव की ओर ले जाने की कल्पना रही होगी । वेदों में, उपनिषदों में पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा आकाश इन पंच महाभूतों की पूजा कही गयी है । इन्हीं तत्वों को-जो जीवन का सार है-उन्होंने ईश्वररूप प्रदान किया था। आगे चलकर मनुष्यों ने ही अपने स्वार्थ के लिए अनेक देवी-देवताओं का निर्माण किया । पुराणों में उनके चमत्कारों से युक्त असंख्य कथाओं का प्रचलन रहा । भारत का अधिकांश समाज अशिक्षित था। कुछ ही चुने हुए व्यक्तियों के हाथों में यह ज्ञान सीमित था । अतः स्वाभाविक रूप में इन गिने-चुने लोगों में से कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए ईश्वर का उपयोग करना शुरू किया। संसार की विविध व्याधियों से पीड़ित जनता अपने दुःख से मुक्ति चाहती थी और अन्धश्रद्धा से तथाकथित ईश्वर के पास पहुंचने के लिए पंडों तथा महन्तों की सहायता लेती थी। कई बार ईश्वर के कोप के काल्पनिक भय से कर्म-काण्ड का आडम्बर करने के लिए बाध्य हो जाती थी। परन्तु आज यह स्थिति नहीं रही है। देश में शिक्षा का प्रसार द्रुतगति से हो रहा है। मनुष्य बौद्धिक धरातल पर अपनी परम्परा को परखना चाहता है। युग के नये आलोक में यदि कोई व्यक्ति अपनी परम्परा को पुनः परखना चाहता हो तो उसे नास्तिक, श्रद्धाहीन, अनधिकारी आदि सम्बोधनों से पुकारकर आप सत्य को छिपा नहीं सकते । आपको उसकी बातें शान्तिपूर्वक सुननी चाहिए। यदि आप उसकी शंकाओं का समाधान करने में असमर्थ होंगे तो आपको इसे रोकने का भी कोई अधिकार नहीं है। आज का बुद्धिवादी मानव केवल नास्तिक ही नहीं है । वह उस अलौकिक दिव्य शक्ति के सम्मुख आज भी नतमस्तक है जो समस्त संसार का परिचालन करती है। इसी प्रकार वह पुराणों तथा परम्परा से पूजित देवी-देवताओं के प्रति उतना सबद्ध भी नहीं है । छः हाथ वाले और तीन मुख वाले श्री गुरुदेव दत्त, सिंह के मुख वाले नृसिंह, हाथी की सूंड वाले गजानन, बन्दर के रूप में हनुमान आदि के रूप की सत्यता वह स्वीकार ही नहीं करता। उसके विचार से ईश्वर के ऐसे रूप सम्भव ही नहीं हैं । ये सारी चीजें अप्राकृतिक एवं चमत्कारपूर्ण हैं जिन्हें मनुष्य ने अपनी कल्पना के सहारे उत्पन्न किया है। राम, कृष्ण आदि के सम्बन्ध में भी वह निश्चित रूप से मानता है कि वे मूलतः मानव ही थे। उन्हें अपने अलौकिक कार्यों से देवतातुल्य स्थान प्राप्त हुआ है। वैसे हम लोग यह देख ही चुके हैं कि हमारे ही समाज के अनेक संतों एवं महापुरुषों को लोगों ने उनके लोकोत्तर कार्य से प्रभावित होकर ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार किया है । उनके मन्दिर भी बनावाये गये हैं और उनकी ईश्वर समान पूजा भी होती है। आज का मनुष्य इस बात को स्वीकार नहीं करता कि देवता अनेक प्रकार के हो सकते हैं और उनके सिद्धांतों में विरोध हो सकता है। विभिन्न देवताओं तथा उनके सिद्धांतों का प्रणयन मनुष्यों ने अपने स्वार्थ के लिए ही किया है। इतिहास से भी यह ज्ञात होता है कि मध्य युग से लेकर आज तक ईश्वर के नाम पर गरीब, भोली-भाली, अनपढ़ जनता को भय दिखाकर अथवा अन्य मार्ग से लूटने का प्रयल धर्म के ठेकेदारों ने किया। ईश्वर के उस पवित्र नाम को बदनाम करने में इन्हीं आडंबर-युक्त कर्मकांडी व्यक्तियों का हाथ रहा है । आज का सजग व्यक्ति सोचता है कि जो इन पंडों तथा महंतों की कृपा का भाजन होकर मन्दिरों में बन्द ताले में चुपचाप पड़ा रहता है वह ईश्वर ही कैसा? वास्तव में ईश्वर विषयक उच्च एवं श्रेष्ठ भावना को नष्ट करने में मानव ही उत्तरदायी आज हम देखते हैं कि जीवन के विविध क्षेत्रों में नेत्रदीपक प्रगति करने पर भी कई क्षेत्र अभी तक ऐसे रहे हैं कि जिनका रहस्य मनुष्य नहीं जान सका है और उन्हें जान लेने की संभावना भी नहीं दिखायी देती। जीवन में कभीकभी ऐसे प्रसंग आते हैं कि समस्त प्रयत्नों के बावजूद संपूर्ण अनुकूलता होते हुए भी प्रत्यक्ष फल-प्राप्ति के समय वांछित फल की प्राप्ति में सफलता नहीं मिलती। समस्त वैभवों के बीच रहकर भी मनः शांति का अभाव क्यों प्रतीत होता है ? पास में जल होते हुए भी यह प्यास क्यों नहीं बुझती? इन प्रश्नों के उत्तर बुद्धि नहीं दे सकती। ऐसी अवस्था में बुद्धिवादी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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