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________________ २०० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ ++++++ ++++ ++++ +++++++++++++ ++ ++ भगवान पार्श्व तेवीसवें तीर्थकर हैं आधुनिक इतिहासकार भी जिनके अस्तित्व को मानते हैं । कवि भगवान पार्श्वनाथ की महान् विशेषता का चित्रण करते हुए कहता है : धृतोत्सर्गोद्रेक: प्रभुरपि विभावं न मनसा स्पृशत्येवं किञ्चित् किमिति कथनीयं पुनरिवम् । भवेन्नाम्ना 5 प्येतज् जगति यशसः स्यात्फलमदः प्रभु पार्श्व वन्दे प्रयमिमतिभूत्यै प्रतिदिनम् ॥ विश्वज्योति श्रमण भगवान महावीर का उग्रतप सभी तीर्थंकरों से बढ़कर था। उन्होंने उग्रतप की साधना से कर्मों को नष्ट कर दिया और शिवत्व को प्राप्त किया, ऐसे महान् वीर प्रभु को कवि उसकी स्तुति कर अपने आपको धन्य अनुभव करता है। देखिए : महातपोभि : परितप्य विग्रहम प्रहाय कर्माणि शिवं शुभं पदम् प्रसिद्ध - संस्तार - पथा प्रयात्यसौ, पथः प्रणेतारमहं प्रभु भजे । इस प्रकार कवि का संस्कृत स्तोत्र साहित्य साधक के अन्तर्मानस में भक्ति की भागीरथी प्रवाहित करता है। गद्य-साहित्य आपश्री ने पद्य में ही नहीं, गद्य की विविध विधाओं में भी बहुत लिखा है। आपश्री ने विविध विषयों पर निबन्ध लिखे हैं। एक विचारक ने लिखा है कि निबन्ध गद्य की कसौटी है । भाषा की पूर्णशक्ति का विकास निबन्ध में ही सबसे अधिक संभव है। अतः भाषा की दृष्टि से निबन्ध गद्य साहित्य का सबसे अधिक तथा विकसित रूप है। सामान्य लेख और निबन्ध में अन्तर है। सामान्य लेख में लेखक का व्यक्तित्व निखरता नहीं है। वह प्रच्छन्न रूप से रहता है, जबकि निबन्ध में लेखक का व्यक्तित्व पूर्णरूप से निखरता है। संक्षेप में कहा जाय तो निबन्ध गद्य, काव्य की वह विधा है जिसमें लेखक एक सीमित आकार में इस विविध रूप जगत् के प्रति अपनी भावात्मक एवं विचारात्मक प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करता हैं। मुख्य रूप से निबन्ध के दो भेद हैं-भावात्मक और विचारात्मक । आपश्री ने दोनों ही प्रकार के निबन्ध लिखे हैं । निबन्धों में अनुभूति की प्रधानता है। विचारात्मक निबन्ध में आपने विवेचनात्मक एवं गवेषणात्मक दोनों प्रकार के निबन्ध लिखे हैं । आपके निबन्धों में कल्पना, अनुभूति और तर्कपूर्ण मधुर व्यंग्य भी है। आपके निबन्धों की शैली सरल, सरस और हृदय के विराट् भावों को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सक्षम है। समय-समय पर आपश्री के निबन्ध पत्र-पत्रिकाओं में और विभिन्न ग्रन्थों में प्रकाशित हुए हैं । और कितने ही निबन्धों की पुस्तकें अभी अप्रकाशित हैं । आपश्री के निबन्धों के कुछ उद्धरण मैं यहाँ दे रहा हूँ पुद्गल द्रव्य पर चिन्तन करते हुए आपश्री ने लिखा है "न्याय-वैशेषिक जिसे भौतिक तत्त्व कहते हैं, विज्ञान जिसे मेटर कहता है, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है । बौद्ध साहित्य में "पुद्गल" शब्द "आलयविज्ञान" "चेतनासंतति" के अर्थ में व्यवहृत हुआ है । भगवती में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को पुद्गल कहा है । पर मुख्य रूप से जैन साहित्य में पुद्गल का अर्थ "मूर्तिक द्रव्य" है जो अजीव है । अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य विलक्षण है । वह रूपी है, मूर्त है उसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पाये जाते हैं । पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े पृथ्वी स्कंध तक में मूर्त गुण पाये जाते हैं। इन चारों गुणों में से किसी में एक, किसी में दो और किसी में तीन गुण हों ऐसा नहीं हो सकता। चारों ही गुण एक साथ रहते हैं। यह सत्य है कि किसी में एक ही गुण की प्रमुखता होती है जिससे वह इन्द्रियगोचर हो जाता है और दूसरे गुण गौण होते हैं जो इन्द्रियगोचर नहीं हो पाते हैं । इन्द्रिय अगोचर होने से हम किसी गुण का अभाव नहीं मान सकते । आज का वैज्ञानिक हाइड्रोजन और नायट्रोजन को वर्ण, गन्ध और रसहीन मानते हैं, यह कथन गोणता को लेकर है। दूसरी दृष्टि से इन गुणों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे 'अमोनिया' में एकांश हाइड्रोजन और तीन अंश नाइट्रोजन रहता है । अमोनिया में गंध और रस ये दो गुण हैं । इन दोनों गुणों की नवीन उत्पत्ति नहीं मानते चूंकि यह सिद्ध है कि असत् की कभी भी उत्पत्ति नहीं हो सकती और सत् का कभी नाश नहीं हो सकता, इसलिए जो गुण अणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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