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________________ तृतीय खण्ड : गुरुदेव की साहित्य धारा २०१ O O -- - - में होता है वही स्कंध में आता है। हाइड्रोजन और नाइट्रोजन के अंश से अमोनिया निर्मित हुआ है, इसलिए रस और गन्ध जो अमोनिया के गुण हैं, वे गुण उस अंश में अवश्य ही होने चाहिए । जो प्रच्छन्न गुण थे वे उसमें प्रकट हुए हैं। पुद्गल में चारों गुण रहते हैं चाहे वे प्रकट हों या अप्रकट हों। पुद्गल तीनों कालों में रहता है, इसलिए सत् है । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है । जो अपने सत् स्वभाव का परित्याग नहीं करता, उत्पाद, व्ययः ध्रौव्य से युक्त है और गुण-पर्याय सहित है, वह द्रव्य है । व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता, उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता । उत्पाद और व्यय के बिना ध्रौव्य हो नहीं सकता । द्रव्य का एक पर्याय उत्पन्न होता है, दूसरा नष्ट होता है पर द्रव्य न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है किन्तु सदा ध्रौव्य रहता है...........।" अहिंसा और अनेकान्त का विश्लेषण करते हुए आपश्री ने बहुत ही स्पष्टता से लिखा है "अहिंसा और अनेकान्त जैनदर्शन के प्राणभूत तत्व हैं। हमारे शरीर में जो स्थान मन और मस्तिष्क का है वही स्थान जैनदर्शन में अहिंसा और अनेकान्त का है। अहिंसा आचारप्रधान है और अनेकान्त विचारप्रधान है। अहिंसा व्यावहारिक है, उसमें प्राणिमात्र के प्रति दया, करुणा, मैत्री व आत्मौपम्य की निर्मल भावना अंगड़ाइयाँ लेती हैं तो अनेकान्त बौद्धिक अहिंसा है, उसमें विचारों की विषमता, मनोमालिन्य, दार्शनिक विचार भेद और उससे उत्पन्न होने वाला संघर्ष नष्ट होता है । सहअस्तित्व, सद्व्यवहार के विमल विचारों के फूल महकने लगते हैं।" विश्व में अशांति का मूल कारण क्या है-इस पर आपश्री ने अपने 'स्याद्वाद और सापेक्षवाद : एक अनुचिन्तन' निबन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है "आज का जन-जीवन संघर्ष से आक्रान्त है, चारों ओर द्वेष और द्वन्द्व का दावानल सुलग रहा है। मानव अपने ही विचारों के कटघरे में आबद्ध है, आलोचना और प्रत्यालोचना का दुश्चक्र तेजी से चल रहा है। मानव एकान्त पक्ष का आग्रही होकर अन्धविश्वासों के चंगुल में फंस रहा है। क्षुद्र व संकुचित मनोवृत्ति का शिकार होकर एक-दूसरे पर छींटाकसी कर रहा है। वह अपने विचारों को सत्य और दूसरे के विचारों को मिथ्या सिद्ध करने में लगा हुआ है । 'सच्चा सो मेरा' इस सिद्धान्त को विस्मृत होकर 'मेरा सो सच्चा' इस सिद्धान्त की उद्घोषणा कर रहा है, परिणामतः इस संकीर्णवृत्ति से मानव समाज में अशांति की लहर लहराने लगी है। उतना ही नहीं, जब मानव में संकीर्ण वृत्ति से उत्पन्न हुआ अहंकार, आग्रह तथा असहिष्णुता का चरमोत्कर्ष होता है तो धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में भी रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं । उस परिस्थिति के निराकरण के लिए ही जैनदर्शन ने विश्व को अनेकान्तवाद की दिव्य दृष्टि प्रदान की।" दान जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर गुरुदेव श्री ने एक विराट् काय ग्रन्थ का निर्माण किया है । दान की व्याख्या करते हुए आपने लिखा है-'दान' दो अक्षरों से बना हुआ एक अत्यन्त चमत्कारी शब्द है। आप दान शब्द सुनकर चौंकिए नहीं। दान से यह मत समझिए कि अपनी कोई वस्तु छीन ली जायेगी या आपको कोई वस्तु जबरन देनी होगी। दान एक धर्म है और धर्म कभी किसी से जबरन नहीं करवाया जाता। हाँ, उसके पालन करने से लाभ और न पालन करने से हानि के विविध पहलू अवश्य ही समझाये जाते हैं । इसी प्रकार दान कोई सरकारी टैक्स नहीं है, कोई आयकर, विक्रयकर या सम्पत्तिकर नहीं है, जो जबरन किसी से लिया जाए अथवा दण्डशक्ति के जोर से उसका पालन कराया जाए। चूंकि दान धर्म है अथवा पुण्य कार्य है इसलिए वह स्वेच्छा से ही किया जाता है। पुण्य पर चिन्तन करते हुए गुरुदेव श्री ने लिखा है-"भारतीय संस्कृति के सभी चिन्तकों ने पुण्य-पाप के सम्बन्ध में विस्तार से चिन्तन किया है। मीमांसक दर्शन ने पुण्य-साधन पर अत्यधिक बल दिया है। उनका अभिमत है कि पुण्य से स्वर्ग के अनुपम सुख प्राप्त होते हैं । उन स्वर्गीय सुखों का उपभोग करना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है पर जैनदर्शन के अनुसार आत्मा का अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है-पुण्य-पाप रूपी समस्त कर्मों से मुक्ति पाना । यह देहातीत या संसारातीत अवस्था है । जब तक प्राणि संसार में रहता है, देह धारण किये हुए हैं, जब तक उसे संसार में रहना पड़ता है और उसके लिए पुण्य-कर्म का सहारा लेना पड़ता है । पाप-कर्म से प्राणि दुःखी होता है, पुण्यकर्म से सुखी । प्रत्येक प्राणि सुख चाहता है । स्वस्थ शरीर, दीर्घ आयुष्य, धन-वैभव, परिवार, यश प्रतिष्ठा आदि की कामना प्राणि मात्र की है । सुख की कामना करने मात्र से सुख नहीं मिलता, किन्तु सुख प्राप्ति के सत्कर्म करने से सुख मिलता है । उस सत्कर्म को शुभयोग कहते हैं । आचार्य उमास्वाती ने कहा है ____ "योगः शुखः पुण्यात्रवस्तु पापस्य तविपर्यासः" ।-शुभयोग पुण्य का आस्रव करता है और अशुभयोग पाप का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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