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________________ करता है आचार्य सम्राट् अमरसिंह जी महाराज के चरित्र के सम्बन्ध में कवि अपनी विनययुक्त भावना अभिव्यक्त सत्ष्ठं भूतिमतिवृतं ज्ञानिष्येषु बन्धम् लक्ष्मीवंत प्रथितसमिति सिद्धगुप्ति प्रसिद्धम् । नत्वाचार्य श्रमणममरं सिंहमेवाभिधानम् तस्यैतचरितम तायते वित्तवृत्तम् ॥ - अर्थात् श्रुति और मति से युक्त, ज्ञानियों एवं गुणियों में वन्दनीय, समितियों के पालक, गुप्तियों के साधक प्रसिद्ध सन्त वर आचार्य अमरसिंह जी महाराज को नमस्कार कर मुझ पुष्कर मुनि के द्वारा उन आचार्य महाराज का यह जाना हुआ अनुपम पवित्र चरित्र विस्तृत किया जा रहा है। तृतीय खण्ड: गुरुदेव की साहित्य धारा ज्येष्ठमल जी महाराज की स्तुति करते हुए आपश्री ने लिखा हैज्येष्ठ मल्ल गुरुदेवं श्रयते भक्तजनो विजनोऽपि विजयते । महिमानं लमते रमणीयम् थिया: शरण्यं गुणभजनीयम् ॥ अर्थात्, जो ज्येष्ठमल जी गुरुदेव का आश्रय लेता है, वह भक्तपुरुष एकाकी रहकर भी विजय प्राप्त करता है । और इतना ही नहीं अपितु वह लक्ष्मी का शरण्य गुणों से प्राप्त चित्ताकर्षक माहात्म्य का अधिकारी होता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में महाकाव्य के सभी गुण विद्यमान हैं । आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श में, व्यास ने अग्निपुराण में, विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रवशोभूषा में आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में अरिष्टोटन ने 'दि आर्ट आफ पोहड़ी' में हेगेल ने 'फिलासफी आफ फाइन आर्ट्स" में, महाकाव्य के लक्षणों पर विस्तार से विवेचन किया है। उन सभी के आधार पर महाकाव्य के मुख्य तत्त्व चार हैं- महान् कथानक, महान् चरित्र, महान् सन्देश और महान् शैली महाकाव्य वह छन्दोबद्ध कथात्मक काव्य रूप है जिसमें कथा प्रवाह, अलंकृत वर्णन और मनोवैज्ञानिक चित्रण से युक्त ऐसा सुनियोजित सांगोपांग और जीवन्त कथानक होता जो रसात्मकता या प्रभान्विति उत्पन्न करने में पूर्ण सक्षम है। महान् प्रेरणा और महान् उपदेश भी प्रस्तुत काव्य में प्रतीकात्मक या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है । यद्यपि प्रस्तुत काव्य में काव्य सम्बन्धी रूढ़ियों की जकड़ नहीं है उसमें कवि ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा का प्रयोग किया है। फलतः इसमें स्वाभाविकता और कलात्मकता दोनों एक साथ परिलक्षित होती हैं। उसमें भाषा की जटिलता नहीं, किन्तु सरसता है और अर्थ की गंभीरता है जो पाठकों के मन को मोह लेती है । १६६ ● काव्य-मर्मज्ञों ने काव्य के अनेक गुण बताये हैं। आचार्य भामह ने काव्यालंकार में माधुर्य, प्रसाद और ओज ये तीन मुख्य गुण बताये हैं। माधुर्य और प्रसाद गुणवाली रचना में समासान्त पदों का प्रायः प्रयोग नहीं होता तो ओज गुणवाली रचना में समास बहुल पद प्रयुक्त होते हैं। आपश्री के प्रस्तुत काव्य में प्रसाद और माधुर्य इन दो गुणों की प्रधानता है, कहीं-कहीं पर ओज गुण भी परिलक्षित होता है । Jain Education International आपश्री ने तीर्थंकरों की स्तुति के रूप में अष्टक, एकादशक, दशक आदि विविध रूप में अनेक स्फुट रचनाएँ भी की हैं। जिनमें आपश्री के हृदय की विराट् भक्ति छलक रही है। इन स्तोत्र साहित्य को पढ़ते हुए सहज ही सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हेमचन्द्र और माततुंग के स्तोत्र साहित्य का सहज ही स्मरण हो आता है । भगवान श्री ऋषभदेव जैन संस्कृति के ही नहीं अपितु विश्व संस्कृति के आद्य पुरुष हैं। संस्कृति और सभ्यता के पुरस्कर्ता हैं। भाव-विभोर होकर उनकी स्तुति करता हुआ कवि कहता है असीद् यदा जगति विप्लव जातौ जनस्य कृषिकर्मनि त्राताऽयमेव विषमे विषये एव बुद्धेः वान्यकार्ये । तदाऽभूत् नमेयम् ॥ तीर्थंकर तमृषभं सततं भगवान शान्तिनाथ सोलहवें तीर्थंकर हैं। विश्व में शान्ति संस्थापक हैं। उनके नाम में ही अद्भुत शक्ति है जिससे सर्वत्र शान्ति की सुरलहरी झनझनाने लगती है । कवि कह रहा है : सुशान्तिनाथस्य पदारविन्दयोः नमस्त्रियोऽपि पुनर्महः । जन्मान्तकर्मशतपे, शिवाय भिस्तव पुष्करी मुनिः ।। नमामि For Private & Personal Use Only C www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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