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________________ • १६८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ भाई बहिन को उत्तर देता है बेनड़ आयो बेनड़ आयो मैं मरुधर सुचाल हो। बेनड़ तपस्या रो भाव देखने जी । बेनड़ थारो बेनड़ यारो मैं धर्म रो वीर हो। बेनड़ लायो मैं तपस्या री चुबड़ी जी ॥ आपने मोहग्रस्त व्यक्तियों को फटकारते हुए कहा आयो केवाँ ने, वाह वाह आयो केवों ने। थे अमर नहीं हो रे वाने के आयो केवा ने ॥ EEEE कुड़ कपट कर माल कमाई, तिजोरी में राख्यो हो । कालो धन नहीं रेला था रे, इन्दिरा भाख्यो हो । श्रद्धेय सद्गुरुवर्य सफल कवि हैं। उनकी कविताओं में भाषा की दुरूहता नहीं, किन्तु भावों की गम्भीरता है। उनका अधिकांश कविता-साहित्य अप्रकाशित है। आपश्री ने जैन इतिहास के उन ज्योतिर्धर नक्षत्रों के जीवनों को चित्रित किया है जिनका जीवन प्रेरणाप्रद रहा है। कवि के काव्य का आधार सदाचार, सत्य, अहिंसा आदि मानवीय सद्गुणों का प्रकाशन है । आपश्री का काव्य साहित्य भाषा, अलंकार, कला आदि दृष्टियों से सुन्दर ही नहीं अति सुन्दर है। संस्कृत साहित्य संस्कृत भाषा भारत की एक अमर थाती है सम्प्रदायवाद, पन्थवाद, प्रान्तवाद, जातिवाद के कृत्रिम भेदों को विस्मृत होकर यहाँ के मूर्धन्य मनीषियों ने गम्भीर व गहन विषयों के प्रतिपादन हेतु इस भाषा को अपनाया। वैदिक मनीषियों ने जहाँ इस भाषा के भण्डार को भरने का प्रयास किया वहाँ पर जैन और बौद्ध विज्ञगण भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी हजारों ग्रन्थ इस भाषा में लिखे । आचार्य हरिभद्र, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य मलयगिरि, आचार्य अभयदेव, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, उपाध्याय यशोविजय जी आचार्य अकलंक, आचार्य समन्तभद्र, विद्यानन्द, प्रभृतिशताधिक जैन विज्ञों ने संस्कृत भाषा में दर्शन, साहित्य, व्याकरण, काव्य आदि पर जिन मौलिक ग्रन्थों का सृजन किया, वह भारत की अमर सम्पत्ति है । इसी प्रकार बौद्ध विद्वान अश्वघोष, वसुबन्धु, दिग्नाग, नागार्जुन, धर्मकीति आदि महान् विद्वानों ने संस्कृत भाषा में, न्याय, दर्शन साहित्य पर विपुल साहित्य का सृजन किया है। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य की ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण संस्कृत भाषा के प्रति प्रारम्भ से ही रुचि रही है । विद्यार्थी जीवन में ही वे संस्कृत भाषा में लिखते रहे । संस्कृत भाषा में उनकी अनेक रचनाएँ हैं । वे सभी रचनाएं अभी तक अप्रकाशित हैं । अमरसिंह महाकाव्य का प्रथम संस्करण विक्रम संवत् १९९३ में प्रकाशित हुआ था, किन्तु बाद में आपश्री को लगा कि रचना अपूर्ण है अतः पुनः उस पर नवीन रूप से लिखा और वह तेरह सर्गों में स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका प्रभृति विविध छन्दों में लिखा गया है । इसमें रूपक, वक्रोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास आदि विविध अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है। यह आपश्री का उत्कृष्ट काव्य है। प्रस्तुत काव्य में आपश्री ने ब्रह्मचर्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है बह्वाश्चर्य जगति तनुते ब्रह्मचर्य प्रशस्तम् यस्योत्कर्ष भुवनविदितं कोऽपि वक्तुं न शक्तः । रम्यं रूपं स्पृशति तृणकं लज्जमानं परन्तु स्वस्यास्तित्वं कथमपि धरन् नृत्यतीदं तदने । अर्थात् संसार में प्रशस्त ब्रह्मचर्य ने महान् आश्चर्य फैला रखा है, जिस ब्रह्मचर्य के विश्व विख्यात वैशिष्ठ्य को कोई भी कहने के लिए समर्थ नहीं हो सका है। यहाँ तक कि यह रमणीय रूप भी लज्जित होकर तिनके तोड़ने लगता है। किन्तु यह अपने अस्तित्व को इसी प्रकार रखकर उस ब्रह्मचर्य के सामने नृत्य करता रहता है । अर्थात् यह ब्रह्मचर्य ही जगदुत्तम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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