SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड : गुरुदेव को साहित्य धारा १९७ अहिंसा का विश्लेषण करते हुए कवि ने बहुत सुन्दर भाव शब्दों की लड़ियों की कड़ियों में पिरोये हैं तत्त्व अहिंसा में सात्विकता, सात्विकता में सत्त्व निवास । सत्त्व सहित जीवन का होता, बहुत महत्त्व, विशेष विकास ॥ स्वतन्त्रता सम्पत्ति सत्त्व में, अतः अहिंसा धर्म प्रधान । धर्म अहिंसा से सहमत हैं, आगम वेद पुरान कुरान । सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य व्रत, एक अहिंसा के हैं अंग । बिना अहिंसा फीका लगता, धर्म-रु उपदेशों का रंग ।। जैन श्रमणों की वेशभूषा में मुख-वस्त्रिका का प्रमुख स्थान है। जैन-श्रमण मुख-वस्त्रिका क्यों धारण करते हैं, कवि ने सरल एवं सरस शब्दों में बताया है मुख्य चिन्ह मुखवस्त्रिका, जैन सन्त का जान । बचा रही है प्रेम से, वायुकाय के प्रान ॥ वह गिरने देती नहीं, सम्मुख स्थित पर थूक । कहती अपने वचन से, कभी न जाना चूक ।। "खुले मह बोले नहीं" यह संयम का मूल । बाँधे जो मुखवस्त्रिका, सम्भव क्यों हो भूल ॥ बाल्य जीवन का वर्णन करते हुए कवि ने उत्तम माता की सन्तान उत्तम होती है-यह प्रतिपादन किया है। उनके कुछ पद्य देखिए उत्तम शिशुओं की माता भी, होती उत्तम गुणवाली। उत्तम फूल उगाने वाली, उत्तम होती है गली ॥ उत्तम रंग अंग भी उत्तम, उत्तम संग मिला सारा । उत्तमता को जाना जाता, उत्तम लक्षण के द्वारा ।। ग्राम्य संस्कृति का चित्रण करते हुए आपथी ने लिखा है गांवों में है धर्म लाज शुभ, गांवों में है नैतिकता । बसी वास्तविकता गाँवों में, शहरों में है कृत्रिमता ।। धर्म के मर्म पर प्रकाश डालते हुए कवि ने कहा है दूध दूध होते नहीं, सारे एक समान । अर्क दूग्ध के पान से, पृष्ट न बनते प्रान। धर्म धर्म कहते सभी, धर्म धर्म में फर्क । मर्म धर्म का समझ लो, करके तर्क वितर्क ॥ आधुनिक मानव समाज नैराश्य, कुण्ठा, सन्त्रास, विघटन आदि भयंकर व्याधियों से पीड़ित हैं । आपश्री की दृष्टि से उन व्याधियों से मुक्त होने के लिए तप, त्याग, वैराग्य ये संजीवनी बूटी के समान हैं । यदि मानव इन सद्गुणों की उपासना करे तो उसका जीवन आशा-उल्लास से भर सकता है। आपश्री ने अपने काव्य में सर्वत्र यही प्रेरणा दी है। आपश्री की काव्यशैली की भाषा प्रभावपूर्ण व प्रभावशाली है। शब्दों का सुन्दर संयोजन, विचारों का सुगठित स्वरूप और अभिव्यक्ति की स्पष्टता आपकी सजग शिल्प चेतना का स्पष्ट उदाहरण है । आपके काव्य में सहजता, तन्मयता और प्रगल्भता का सुन्दर संयोजन हुआ है। भाषा की दृष्टि से आपश्री का काव्य-साहित्य हिन्दी, राजस्थानी और संस्कृत में रहा है। समय-समय पर आपश्री ने राजस्थानी भाषा में भी प्रकीर्णक कविताएँ लिखी हैं। जैन साधना में तप का अत्यधिक महत्त्व रहा है। जब बहिनें तप करती हैं तब उन्हें भाई की सहज स्मृति हो आती है। आपश्री ने बहिन की भावना का चित्रण राजस्थानी भाषा में इस प्रकार किया है वीरा आई जो, वीरा आई जो थे तपस्या रे माय हो। वीरा यां विना सूनो लागसी जी॥ वीरा जग में वीरा जग में सगलो साथ हो। वीरा मिल्यो ने मिल जावसी जी।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy