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________________ द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन १७५ ++++ ++ ++ + ++++++ ++++++++ ++++ ++ व्यक्ति ही इस पथ का पथिक हो सकता है। चलते समय कभी-कभी आपत्तियां भी आती हैं तो कभी-कभी आनन्द भी। कहीं पर स्नेह-सद्भावना और सत्कार का अमृत मिलता है तो कहीं द्वेष-दुर्भावना और दुतकार का हलाहल जहर भी मिलता है। कहीं पर भव्य भवन मिलते हैं तो कहीं पर रहने के लिए टूटी-फूटी झोपडी भी नहीं मिलती। कभी धी घना तो कभी मुट्टी चना भी नसीब नहीं होते। एतदर्थ ही एक कवि ने कहा- 'परदेश कलेश नरेशहु को।" । अर्थात् "परदेश में नरेश को भी कष्ट मिलता है"तो साधारण व्यक्ति की बात ही क्या ? किन्तु सच्चा साधक विहार में आने वाली कठिनाइयों, विघ्नबाधाओं तथा तूफानों को देखकर न घबराता है, न झिझकता है, न ठिठकता है, न रुकता है। किन्तु उस समय अपनी अलमस्ती में चलता हुआ एक उर्दू शायर से वह प्रेरणा प्राप्त कर लेता है "काट लेना हर कठिन मंजिल का कुछ मुश्किल नहीं । इक जरा इन्सान में चलने की आदत चाहिए।" विहार में यात्रा में, वह नये-नये व्यक्तियों से, नये-नये गाँवों से, नये-नये मकान और नये-नये खान पानों से साक्षात करता हुआ शेर की तरह वह अपने ध्येय की ओर आगे बढ़ता जाता है। विघ्न-बाधाएँ और तूफानों को देखकर उसके कदम न लड़खड़ाते हैं, न डगमगाते हैं, किन्तु हिमालय की चट्टान की तरह अडिग रहता है। आज नित नये वाहनों के विकास ने क्षेत्र की दूरी को संकुचित कर दिया है । जल, स्थल और अनन्त आकाश की अगम्यता भी धीरे धीरे गम्यता में परिणत हो रही है। तथापि जैनश्रमण प्राचीन परम्परा के अनुसार पादचार से ग्रामानुग्राम विहरण करता है । विहारचर्या जन-सम्पर्क की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तेज वाहनों पर चलने से गाँवों और शहरों के व्यक्तियों से सम्पर्क नहीं हो सकता। जैनश्रमण प्रव्रज्या ग्रहण करते ही आजीवन के लिए वह पदयात्री बन जाता है । श्रद्धय सद्गुरुवर्य ने अपने जीवन में बहुत बड़ी-बडी पद-यात्राएँ की हैं । उन्होंने मेवाड़, पचमहाल, मारवाड़, ढुढार, भरतपुर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, खानदेश, सौराष्ट्र, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तामिलनाडु आदि प्रान्तों की अनेक बार यात्राएँ की हैं। मारवाड़ और मेवाड़ के छोटे-छोटे गाँवों में आप पधारे हैं । राजस्थान से बम्बई और पूना तक आपने चार बार यात्रा की। और प्रत्येक बार की यात्रा पहली की यात्रा से अधिक प्रभावशाली रही । प्रथम यात्रा में आपश्री बंबई में दो महीने रुके । दूसरी यात्रा में बंबई के विविध अंचलों में बारह महीने तक रुके । तृतीय यात्रा के प्रथम चरण में छ: महीने तक और द्वितीय चरण में दो वर्ष तक रुके । इस समय मेरे द्वारा संपादित किया हुआ कल्पसूत्र का गुजराती अनुवाद, कान्दावाड़ी जैन संघ के द्वारा प्रकाशित हुआ और उसकी प्रथम आवृत्ति ३००० प्रतियां सिर्फ ५ दिन में समाप्त हो गयीं पुनः द्वितीय आवृत्ति ८ दिन में समाप्त हो गयीं। कुछ ईर्ष्यालु व्यक्तियों ने उसकी लोकप्रियता को देखकर उसकी आलोचना भी की। किन्तु उसकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गयी। और चतुर्थ यात्रा में दक्षिण की ओर बढना था, तो सिर्फ चालीस दिन तक रहे। किन्तु इन चालीस दिनों में अत्यधिक व्यस्त कार्यक्रम रहा। स्थान-स्थान पर आपश्री के जाहिर प्रवचन हुए। चौपाटी पर महावीर जयन्ती के पावन प्रसंग होने से लगभग ७०-८० हजार जनता थी। भात बाजार के जाहिर प्रवचन में १०-१५ हजार जनता थी। बंबई में सर्वप्रथम राजस्थानी मुनियों का स्वागत और विदाई समारोह मनाया गया जिसमें बंबई के गणमान्य नेतागण उपस्थित थे। इन चालीस दिन के प्रवास में सैकड़ों कार्यकर्तागण गुरुदेव श्री के निकट सम्पर्क में आये और गुरुदेव श्री के प्रबल प्रभाव से प्रभावित हुए। अहमदाबाद भी गुरुदेव चार बार पधारे। प्रथम बार में प्रेमा बाई हॉल में जाहिर प्रवचन हुए। दूसरी व तीसरी बार के प्रवास में भी स्थान-स्थान पर आपके जाहिर प्रवचनों का आयोजन हुआ। दूसरी और तीसरी बार में आपश्री क्रमशः १ महीना तथा दस दिन विराजे । चतुर्थ यात्रा में आपने वहाँ पर वर्षावास किया । श्रावकों में साम्प्रदायिक मतभेद की स्थिति चल रही थी, जो आपके वहाँ पर वर्षावास करने से मिट गयी और जन-मानस में स्नेह का सरस वातावरण निर्माण हुआ। भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी का सुनहरा प्रसंग था । श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी जैन समाज में निर्वाण शताब्दी न मनायी जाय इस सम्बन्ध में तीव्र विरोध था। उस विरोध में आपश्री के प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व के कारण अहमदाबाद में स्थित मन्दिरमार्गी समाज के मूर्धन्य आचार्य श्री नन्दनसूरि जी आदि ने इस आयोजन में भाग लिया। उग्रविरोध में भी निर्वाण महोत्सव का कार्य शानदार रूप से मनाया गया। हठीसिंह की वाड़ी में तथा नगर सेठ के बंडे में सामूहिक रूप से आयोजन हुए एवं राजस्थानी सोसाइटी के विशाल मैदान में मोरारजी भाई देसाई के द्वारा 'भगवान महावीर : एक अनुशीलन' ग्रन्थ का विमोचन किया गया और वह आपश्री को समर्पित किया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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