SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ O o O. Jain Education International १७४ श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ कदम-कदम पर पदम खिले गुरुदेव श्री के बिहार चर्या और वर्षावास एक विवरण [D] देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्रमण संस्कृति का श्रमण घुमक्कड़ है। हिमालय से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक वह पैदल परिभ्रमण कर जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म की ज्योति जगाता है। धर्म से विमुख बने हुए व्यक्तियों को धर्म का सही मर्म बतलाता है । सरिता की सरस धारा के समान चलते रहना ही उसको पसन्द है। भगवान महावीर ने ऋषिमुनियों के लिए कहा है- "विहारचरिया इसिणंपसत्था" श्रमण ऋषियों के लिए विहार करना प्रशस्त है । जैन श्रमणों के लिए ही नहीं, वैदिक संन्यासियों के लिए और बौद्ध भिक्षुओं के लिए भी परिभ्रमण करना आवश्यक माना है । जीवन की गतिशीलता के साथ पैरों की गतिशीलता का कोई अदृष्ट सम्बन्ध रहना चाहिए। नीतिकारों ने देशाटन को चातुर्य का कारण माना है- “देशाटनं पण्डितमित्रता च।" उपनिषदकारों ने "चरैवेति चरैवेति'" सूत्र के द्वारा केवल भावात्मक गतिशीलता को ही नहीं अपितु परिभ्रमण को विभिन्न उपलब्धियों का हेतु माना है । वृद्धश्रवा इन्द्र ने सत्य ही कहा है – “चरती चरतो भगः” जो बैठा रहेगा उसका भाग्य भी बैठा रहेगा, जो चलता रहेगा उसका भाग्य भी गतिशील होगा । तथागत बुद्ध का मन्तव्य है जैसे गेंडा अकेला वन में निर्भय होकर घूमता है वैसे ही भिक्षुओं को निर्भय होकर घूमना चाहिए। एक समय उन्होंने अपने साठ शिष्यों को बुलाकर कहा ---- "चरम मिक्स बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय. चरथ भिक्खवे चारिकां, चरथ भिक्खवे चारिकां ।" ............0000 'हे भिक्षुओ, बहुत से लोगों के हित के लिए और अनेक लोगों के सुख के लिए विचरण करो । भिक्षुओ ! अपनी जीवनचर्या के लिए सतत चलते रहो, सतत भ्रमण करते रहो।" उन भिक्षुओं ने तथागत बुद्ध पूछा - " भदन्त, अज्ञात प्रदेश में जाकर हम लोगों को क्या उपदेश दें ?" उत्तर में बुद्ध ने कहा "पाणी महंतो अदिन्नं न दातव्यं कामेसु मुच्छा न चरितव्या मूसा न मासितब्वा, मज्जं न पातव्वं ।" - For Private & Personal Use Only अर्थात् " प्राणियों की हिंसा मत करो, चोरी मत करो, कामासक्त मत बनो, मृषा मत बोलो और मद्य मत पिओ ।" बौद्ध धर्म के विश्व के सुदूर अंचलों में फैलने का मुख्य कारण बौद्ध भिक्षुओं के सतत पैदल परिभ्रमण को ही है । बौद्ध भिक्षुओं ने घूम-घूम कर अपने आचरण व उपदेशों के द्वारा लंका, जावा, सुमात्रा, बर्मा, श्याम, चीन, जापान, तिब्बत, प्रभृति एशिया में धर्म, नीति, सभ्यता और संस्कृति का प्रचार किया । महापण्डित श्री राहुल सांकृत्यायन ने “घुमक्कड़ शास्त्र" नामक एक ग्रन्थ लिखा है जिसमें उन्होंने अतीत काल के घुमक्कड़ों का वर्णन करते हुए घुमक्कड़ी के अनेक लाभ बताये हैं। उन्होंने भगवान महावीर को 'घुमक्क राज' पद प्रदान किया है। भगवान महावीर ने भी अपने श्रमणों और श्रमणियों को एक दिन कहा था- "भारं डपक्खीव चरेऽप्पमत्ते'' - हे श्रमणों, भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विहार करो, भ्रमण करो, विचरण करो।" जैन और बौद्ध श्रमणों के विहार करने के कारण ही उस प्रदेश का नाम 'बिहार' हो गया। एक पाश्चात्य विचारक ने भी कहा है- जो पद यात्रा करता है उसी की यात्रा सर्वोत्तम है : "He travels best, who travels on foot. मानव जीवन की गहनता, जीवन की वास्तविक अनुभूति और सांस्कृतिक अध्ययन तथा नैतिक परम्पराओं का तलस्पर्शी अनुशीलन जो एक घुमक्कड़ कर सकता है उसकी कल्पना एक वाहन विहारी नहीं कर सकता । यह सत्य है, पैदल घूमना फूलों का मार्ग नहीं कांटों का मार्ग है, सुख-सुविधाओं का मार्ग नहीं, दुःखों का मार्ग है, सहिष्णु www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy