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________________ +++ मैंने जो गुरुदेव श्री का जीवन-वृत्त लिखा है वह भावुकता के प्रवाह में प्रवाहित होकर नहीं लिखा है, किन्तु गहराई से उनकी अगाधता को देखा है। मुझे ऐसा ज्ञात हुआ कि अगणित सूर्य अपनी हजारों किरणों के साथ चमक रहे हैं, विश्वमंत्री के अगणित कलश एक साथ छलक रहे हैं; और उनके अन्तर्हृदय से स्नेह सद्भावना व करुणा की न जाने कितनी ही गंगा-यमुना और सरस्वतियाँ बह रही हैं । अतः उसे किसी सीमा रेखा में बाँधना कठिन ही नहीं कठिनतर है, मेरा मानना है । आपश्री का निर्मल व्यक्तित्व "सत्यं शिवं सुन्दरम् " की अपूर्व समन्विति है । आपके प्रत्येक चरण में मानवता की मंगल मुस्कराहट है और प्रत्येक शब्द में समन्वय का अनहद नाद है और प्रत्येक चिन्तन में दिव्य आलोक है और प्रत्येक श्वासोच्छ्वास में अनन्त विश्वास है । श्रद्धय सद्गुरुवर्य का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुमुखी है । उत्कृष्ट साधना से अपने अन्तरंग को विकसित किया है । वहाँ व्यवहार कुशलता और स्नेह सद्भावना से जन-जन के अन्तर्मानस को जीता है। आपश्री का जीवन सरोवर नहीं, किन्तु भागीरथी को बहती धारा है । आपके प्रत्येक श्वास में प्रगति का स्वर प्रस्फुटित होता है, जुड़ता और स्थितिपालकता आपको किंचित् भी पसन्द नहीं है । किन्तु आपके जीवन में ऋतुराज वसन्त की तरह सुन्दरता और सरसता है । सदा अभिनव कल्पना और नये उत्साह के सरस सुमन खिलते रहते हैं । अतीत के प्रति अपार आस्था होने पर भी आपके नेत्रों में भविष्य का विश्वास और उल्लास है । आप मानवता के मसीहा हैं, युगपुरुष हैं। आपका जीवन 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' है । आप असाधारण प्रतिभा सम्पन्न, अतुल आत्मबली, कुशल अनुशासक, अनुत्तर आचार-निधि और साहित्य जगत् के उज्ज्वल नक्षत्र हैं । द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन १७३ मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ मुझे सद्गुरुदेव श्री के जीवन को अत्यन्त निकटता से देखने का अवसर मिला । सन् १९४० में मैंने आपश्री के चरणों में आर्हती दीक्षा ग्रहण की तब से निरन्तर मैं आपश्री के साथ रहा हूँ । मैंने अच्छी तरह से आपश्री को देखा है, परखा है, जैसे सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा की शीतलता और जलधि का गांभीर्य प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं, वैसे आपके जीवन को निरखने की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं निखरित है । आपके तपःपूत व्यक्तित्व और सर्जनात्मक कृतित्व की मेरे हृदय पर अमिट छाप है । श्रद्धय सद्गुरुवर्य का सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है, यह अत्यन्त आल्हाद का विषय है । इस सुनहरे अवसर पर अगाध श्रद्धा के सुवासित सुमनों की लघु भेंट उनके श्री चरणों में समर्पित करते हुए मैं अपने आपको धन्य अनुभव कर रहा हूँ। हमारे हृदय की यही मंगलमय भावना है आप दीर्घायु हों, शतायु हों और हम आपके कुशल नेतृत्व में ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निरन्तर बढ़ते रहें । Jain Education International ८०-०--बोलते क्षण मैं उम्र में छोटा हूँ गुरुदेव श्री एक गाँव में ठहरे हुए थे। एक वृद्ध किसान आया, गुरुदेव को नमस्कार कर बोला- जरा आप अपना पैर लम्बा कीजिए, ताकि मैं आपश्री के चरण दबा सकूं । गुरुदेव श्री ने कहा- हम इस प्रकार गृहस्थों से शारीरिक सेवा नहीं करवाते हैं । किसान ने अपनी आँखें आप पर गड़ाते हुए कहा - आप पैर दबवाने से क्यों घबरा रहे हैं ? मैंने अनेक साधु-महात्माओं के पैर दबाये हैं । गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा- यह हमारा नियम है और दूसरी बात यह है कि तुम अवस्था में मेरे से बड़े हो । मैं उम्र में छोटा हूँ, नौजवान हूँ। इसलिए भी वृद्धों से पैर दबवाना नीति के प्रतिकूल है । |--0-0-0--0 --०-०-०--बोलते क्षण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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