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________________ कुण्डलिनी योग : एक विश्लेषण १८५ . ध्यान में साधक भी प्राकृतिक रीति से आसन बदलता रहता है। शरीर को कष्टरहित रखने का कार्य प्राण का है, उसमें मन के आदेश की आवश्यकता ही नहीं है। ८. कुण्डलिनी जाग्रत होने पर क्या-क्या होता है ? शक्तिपात की दीक्षा से साधकों के शरीर में प्राणोत्यान होता है। उस समय ध्यानस्थ साधकों को विविध अनुभव होने लगते हैं। यथा (१) किसी को रोमांच हो जाता है। (२) कोई काँपने लगता है। (३) कोई डोलने लगता है। (४) कोई विविध आसन करता है । (५) कोई विविध मुद्राएँ करता है। (६) कोई बैठे-बैठे चक्की की तरह गोलगोल घूमने लगता है। (७) कोई मेढक की तरह इधर-उधर उछलने लगता है। (८) कोई नृत्य करता है। (8) कोई विविध प्राणायाम करता है। (१०) कोई 'राम', 'ॐ' इत्यादि मन्त्रों का उच्चारण करता है। (११) कोई वेदध्वनि करता है। (१२) कोई नाम संकीर्तन करता है। (१३) कोई शास्त्रीय रागों का आलाप करता है। (१४) कोई बड़बड़ाने लगता है। (१५) कोई रोता है। (१६) कोई अट्टहास करता है। (१७) कोई विविध गर्जनाएँ करता है। (१८) कोई चीत्कार करता है । (१६) कोई बैठा हुआ साधक आगे झुककर 'भूनमनासन' पर पड़ा रहता है । (२०) कोई बैठा हुआ साधक पीछे झुककर मत्स्यासन, शवासन इत्यादि आसन पर पड़ा रहता है। (२१) कोई आनन्ददायक स्वप्न देखता है। (२२) कोई भगवान् की लीलाओं का दर्शन करता है। (२३) कोई भयानक दृश्य देखता है। (२४) कोई प्रकाश देखता है। (२५) कोई विविध रंगों को देखता है। (२६) कोई देव-देवियों के अथवा अपने गुरु के दर्शन करता है। (२७) कोई तन्द्रा में रहता है। (२८) कोई योगनिद्रा का आस्वाद लेता है। (२६) कोई मूच्छित हो जाता है। (३०) किसी को मूत्रस्राव हो जाता है। (३१) किसी को वीर्यस्राव हो जाता है। इस प्रकार विविध शारीरिक प्रक्रियाएँ ध्यान की अपरिचित दिशा का उद्घाटन करती हैं। इनको योग की सामान्य अनुभूतियाँ भी कह सकते हैं। श्रीमद्भागवत् में शक्तिपात-अनुग्रह-के ध्यान का वर्णन है । इसमें श्रीकृष्ण भगवद्भक्त को ध्यान में कैसी अवस्था होती है उसका वर्णन करते हैं- "जब तक शरीर पुलकित नहीं होता, चित्त द्रव कर गद्गद् नहीं होता, आँखों से आनन्दाथ बहने नहीं लगते तथा अंतरंग और बहिरंग भक्ति के पूर में चित्त प्रवाहित नहीं होता, तब तक उसकी शुद्धि की कोई संभावना नहीं है।"२७ "जिसकी वाणी स्नेह से गद्गद् हो गयी है, चित्त द्रव रहा है, आँखों से अश्रु बह रहे हैं, और जो कभी अट्टहास करता है, कभी निर्लज्ज होकर उच्चस्वर से गाता है कभी नृत्य करता है, प्रिय उद्धव ! ऐसा मेरा भक्त केवल अपने को ही नहीं, समस्त संसार को पवित्र करता है।"२८ "भक्त चक्रपाणि विष्णु के कल्याणकारक एवं लोकप्रसिद्ध अवतारों तथा उनकी लीलाओं को सुनता हुआ तथा उन गुणों का और लीलाओं का स्मरण करने वाले नामों का लज्जारहित गान करता हुआ संसार में अनासक्त होकर विचरता है ।" "इस प्रकार का व्रत धारण करके वह प्रियतम प्रभु के नाम-संकीर्तन से उन पर अत्यन्त स्नेह उत्पन्न होने के द्रवित चित्त से कभी उन्मत्त के सदृश मुक्तहास्य करता है, कभी आक्रन्द करता है, कभी चीत्कार करता है, कभी उच्चस्वर से गाता है, कभी नृत्य करता है-इस प्रकार वह लोकमान्यता से परे हो जाता है।" यह सबीज समाधि की भूमिका है । यद्यपि आरम्भ का साधक भी उपर्युक्त क्रियाएँ करता है किन्तु वह साक्षात्कार को पहिचानता नहीं है। हाँ, ध्यान में आगे बढ़ा हुआ साधक ही उस साक्षात्कार को उत्तम रीति से पहिचानता है। . शिवपुराणादि पुराणों में, योगवासिष्ठ में, मण्डलब्राह्मणादि उपनिषदों में, नारद भक्तिसूत्र इत्यादि सूत्रों में और असंख्य तंत्रग्रंथों में शक्तिपात का वर्णन उपलब्ध होता है। योगमार्ग की विविध अनुभूतियों से साधक के अन्तःकरण में श्रद्धा, शौर्य, धैर्य, ज्ञान, उत्साह, गुरुभक्ति, शास्त्रभक्ति और ईश्वरभक्ति की वृद्धि होती है। आरम्भ में उसको विविध आसन, मुद्रा, प्राणायाम, इत्यादि का परिचय होता है। मध्य में निम्नचक्रों का और मध्यचक्रों का परिचय होता है, अन्त में ऊर्ध्वचक्रों का अभ्यास दृढ़ होने पर ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि, रुद्रग्रंथि, अनाहतनाद, ज्योति, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का परिचय होता है। इस प्रकार साधक योग द्वारा योग का ज्ञान प्राप्त करता हुआ योग-यात्रा करता है। जैसे-जैसे साधक योगाभ्यास-प्रगति सिद्ध करता जाता है वैसे-वैसे एक ही पुरानी अनुभूति नूतन स्वरूपों को धारण करके साधक के योग-मार्ग में बार-बार उपस्थित हुआ करती है, अतः आरम्भ के साधक को सावधान रहना चाहिए और किसी भी प्राप्त अनुभूति को अंतिम अनुभूति नहीं मानना चाहिए। हाँ, हम योगानुभूतियों को अनेक वर्गों में विभक्त कर सकते हैं, परन्तु उनके समस्त वर्गों को हमें उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ-इन तीन वर्गों में समाविष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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