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________________ १८६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड कर लेना चाहिए। उत्तम अनुभूतियाँ अंतिम परिणाम होने के कारण उनकी उपलब्धि समान रूप में हुआ करती है, परन्तु मध्यम एवं कनिष्ठ अनुभूतियों की उपलब्धि सर्व को न्यूनाधिक रूप में अथवा परिवर्तनयुक्त प्राप्त होती है। योग के सुप्रसिद्ध ग्रंथों में समस्त आसन-मुद्राओं, प्राणायामों, प्रत्याहारों, धारणाओं और ध्यानों का विस्तृत वर्णन प्राप्त नहीं होता, केवल संक्षिप्त और अतिमहत्व का वर्णन ही प्राप्त होता है । वे ही योग की अंतिम अनुभूतियां हैं। इतना होने पर भी यह स्मरणीय है कि ईश्वर अनिवर्चनीय होने से योगानुभव भी अनिवर्चनीय है। हाँ, यदि ईश्वर निर्वचनीय होता तो योगानुभव भी निर्वचनीय होते। मन सान्त और सीमित है, ईश्वर अनंत और असीमित है । जहाँ मन की ही गति न हो वहाँ वाणी की गति कैसे सम्भव है? अतः वाणी इन्द्रियों के अनुभवों को अभिव्यक्त कर सकती है, इन्द्रियातीत अनुभवों को अभिव्यक्त नहीं कर सकती। 'शक्तिपात की दीक्षा' संन्यास की ही दीक्षा है। इसमें कर्मफल का परित्याग करना पड़ता है। इस दीक्षा को 'निष्काम कर्मयोग' की दीक्षा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें साधक को ऊर्ध्वरेता बनना पड़ता है। सकाम साधक का योगमार्ग इससे भिन्न है जिसमें सामान्य ब्रह्मचर्य अथवा मर्यादित संयम होता है। शक्तिपात की दीक्षा से दीक्षित साधक योगग्रन्थों का पठन करके उनमें निर्दिष्ट की हुई योगप्रक्रियाओं का अनुष्ठान नहीं करता है। वह तो उनमें मात्र दृष्टिनिक्षेप करता है और उनकी अनुभूतियों के साथ अपनी अनुभूतियाँ मिलती हैं या नहीं, इतना ही देखता है। ऐसा साधक जब अपनी योगानुभूतियों को शास्त्रों में देखता है तब उसके आनन्द की सीमा नहीं रह पाती। इस प्रयोजन से उसकी उपासना वेगपूर्वक आगे बढ़ती है और उसको शास्त्रचिन्तन में भी अवर्णनीय आनन्द आता है । जब तक साधक को ऐसा अनुभव नहीं होता, तब तक उसको 'शास्त्रकृपा' का सत्य सहस्य अवगत नहीं होता। जो प्रचारक प्राचीन शास्त्रों के दृष्टिकोण को बिना समझे उनकी निन्दा करता है और अपने अनुभवों को ही गुप्त रीति से अधिक महत्व प्रदान करता है वह बाहर से कितना भी विनम्र क्यों न हो किन्तु भीतर से अभिमानी ही होता है। वह सत्य की नहीं अपितु स्वयं की प्रतिष्ठा करना चाहता है। सत्य का सम्मान चाहने वाला साधक पूर्वाचार्यों के अनुभवों का गुणगान करने लगता है और श्रेष्ठ शास्त्रों की समाज में सुप्रतिष्ठा करता है। शास्त्रों का अस्तित्व उनकी अपनी विशेषताओं पर और सत्य पर निर्भर है। पूर्वकाल में ऐसे कई सामान्य ग्रन्थों की रचना हुई थी और उनकी सुरक्षा भी की गई थी फिर भी वे नष्ट हो गये हैं, आज उन ग्रन्थों के नाम तक कोई नहीं जानता। इससे विपरीत, आज प्राचीन अप्राप्य शास्त्रों को प्राप्त करने के लिए अथाह प्रयत्न किया जाता है। मान लें कि प्राचीन शास्त्रों में सम्पूर्ण असत्य ही भरा हुआ है तो भी वे अत्युपयोगी हैं, क्योंकि सत्य के अन्वेषण में असत्य उपलब्ध होने के कारण सहायक होता है। हाँ, सत्यासत्य का निर्णय तर्क पर अवश्य आधारित है किन्तु उस तर्क को भी प्रयोग की कसौटी पर बार-बार कसना पड़ता है। योग तर्क नहीं है, श्रद्धा भी नहीं है, योग है उन दोनों की कसौटी का नाम । ६. समाधि आरम्भ में अनुष्ठान द्वारा कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है, मध्य में वह ऊर्ध्वमुखी होती है और अन्त में सहस्रार चक्र में पहुंचकर शिव से मिलती है। राजयोग, उन्मनी, मनोन्मनी, अमनत्व, लय, तत्त्व शून्याशुन्य, परंपद, अद्वैत, अमनस्क, निरालम्ब, निरञ्जन, जीवन्मुक्ति, सहजावस्था, तुर्यावस्था इत्यादि नाम समाधि के हैं । समाधि में प्राण क्षीण हो जाने से मन का लय होता है यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होने से जीव अपने स्व-स्वरूप में तद्रूप हो जाता है। योग का अंतिम अंग है समाधि । महर्षि घेरण्ड ने कहा है-"समाधि से भिन्न कोई योग नहीं है। जो योगी समाधि सिद्ध करता है उसके समान कोई भाग्यशाली नहीं है। यह समाधि सद्गुरु की भक्ति और उनके अनुग्रह द्वारा सिद्ध होती है।"३१ योगीश्वर याज्ञवल्क्य जी ने कहा है-"जीवात्मा और परमात्मा की समता का नाम समाधि है।"१२ समाधि तो एक ही है किन्तु उसकी अवस्थाएँ दो हैं। पहली अवस्था को सबीज, संप्रज्ञात, सविकल्प, क्रियायोग अथवा चेतन समाधि कहा जाता है। वह समाधि का पूर्वांग है। योगदर्शन में धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों के एकत्ररूप को 'संयम' की संज्ञा दी है। बासना का बीज है मन। इस समाधि में उसका अस्तित्व रहता है, अत: उसको सबीज समाधि कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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