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________________ १८४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड द्वारा भी हो सकता है, अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति बिना गुरु के भी जगायी जा सकती है, किन्तु ऐसा साधक अपनी अनुभूतियों को समुचित रूप में समझ नहीं पाता, परिणामतः उसकी प्रगति शंकाओं की बाधाओं से रुक जाती है। इस मार्ग में पूर्ण अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन की अनिवार्य आवश्यकता है। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि जो गुरु शक्तिपात की दीक्षा प्रदान कर सकता है वह पूर्णयोगी ही होता है, ऐसा नहीं है । शक्तिपात की दीक्षा देने वाले हर योगी को पूर्णयोगी मान लेना, यह बहुत बड़ा भ्रम है। यदि गुरु प्रसन्न होकर 'शक्तिपात-विद्या' किसी भी सामान्य शिष्य को, जिसके प्राणोत्थान को केवल चार ही दिन हुए हों उसको, देता है तो वह भी सहस्रों मनुष्यों को एक साथ शक्तिपात की दीक्षा दे सकता है, किन्तु उसको स्वल्प भी योगानुभव न होने से वह किसी उच्च कक्षा के साधक को मार्गदर्शन नहीं दे सकता। साम्प्रत में जो योगी शिष्यों को शक्तिपात की दीक्षा दे रहे हैं उनमें से अधिकांश योगी ऐसा ही मानते है कि प्राणोत्थान ही कुण्डलिनी की जागृति है; वह उनका केवल भ्रम ही है। हाँ, प्राणोत्थान द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत होती है, यह सत्य है; किन्तु जिस साधक को आचार्यानुग्रह अथवा ईश्वरानुग्रह सम्प्राप्त होता है उसके शरीर में उठा हुआ शुरु का अधोगामी प्राण कुण्डलिनी नहीं है, वह तो उसको जाग्रत करने में सहायता पहुँचाने वाला सन्मित्र है। स्थूलकुण्डलिनी का कार्य चक्रभेदन और ग्रन्थिभेदन है। उसकी समाप्ति के पश्चात ऊर्ध्वगामी प्राणापान सुषुम्ना में निरन्तर प्रवाहित होते हैं। उस भूमिका में स्थूलकुण्डलिनी का कार्य ऊर्ध्वगामी प्राणापानरूप सूक्ष्मकुण्डलिनी अपने सिर ले लेती है। उस समय 'शक्तिचालनमुद्रा' भी अपने मूल स्वरूप का परित्याग करके 'योनिमुद्रा' का स्वरूप धारण कर लेती है। निम्नोक्त शक्तिपात ध्यानविधि में 'शब्द' एवं 'संकल्प' इन दो दीक्षा-विधियों का समावेश किया गया है। इसका प्रयोग केवल उच्च कक्षा के साधक ही करें-यह मेरा विशेष सूचन है। (१) सिर, ग्रीवा और काया को सीधा रखकर स्वानुकुल आसन पर बैठे, किन्तु ध्यान रहे कि शरीर सीधा होने पर भी तना हुआ न हो। (२) तदनन्तर कुछ समय श्री सद्गुरु अथवा भगवान इन दोनों में से जिस पर आपको अधिक अनुराग हो उसकी प्रेमपूर्वक मूक प्रार्थना करें-"प्रभो! मैं आपका ध्यान उत्तम प्रकार से कर सकं इसलिए आप मुझ पर कृपा करें।" "असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतंगमय । हे दयानिधे ! (कृपा करके) मुझे असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर ले जाइये।" यह दूसरी प्रार्थना भी करें। (३) प्रार्थना के पश्चात दीर्घप्राणायाम, भस्त्रिका अथवा अनुलोम-विलोम प्राणायाम में से किसी एक प्राणायाम की पच्चीस आवृत्ति करें। (४) तत्पश्चात शरीर पर से मन की सत्ता उठा लें यानी शरीर को सम्पूर्ण ढीला छोड़ दें-शिथिलीकरण करें। जब शरीर अपने आप क्रिया करने लग जाय तब उसे रोकिये मत । (५) प्राप्त अवस्था में जो अनुभव हो रहा हो उसमें ही मन को केन्द्रित करें अथवा श्री गुरुदेव व श्री प्रभुजी की लीलाओं का चिन्तन करें अथवा महावीर, राम, इत्यादि नामों में से जो नाम अधिक प्रिय हो उसका मानसिक जप करें। गुरुमंत्र का जप भी कर सकते हैं। मैंने गन्ध के प्रत्याहार में अजपाजप की विधि-श्वास की गिनती-दिखाई है यदि उसका अवलम्बन लेना चाहें तो ले सकते हैं । (६) ध्यान की समाप्तिपर्यन्त आँखें बन्द ही रखें। प्रतिदिन एक घण्टे का ध्यान पर्याप्त है। (७) ध्यान धीरे-धीरे छोड़ें, शीघ्रता न करें। (८) अंत में पुनः असतो मा सद्गमय वाली प्रार्थना करें। उत्तम ध्यान इसलिए नहीं होता कि साधक अपने शरीर को सीधा और सम्पूर्ण तना हुआ रखने के लिए सतत आयास करता रहता है। इतना ही नहीं, उस पर मन का कठोर पहरा भी लगा देता है, अतः मन को आत्मा की गहनता में उतरने के लिए अवकाश ही नहीं मिलता है। जैसे किनारे से बँधी हुई नौका में बैठकर चप्पू चलाने से वह दूसरे किनारे पर नहीं पहुँचती, उसी प्रकार शरीर पर मन का पहरा लगा देने से मन अंतर्मुख नहीं बन पाता। मनुष्य गाढ़निद्रा में एक दो बार पावों को बदलता है तथापि उसको उसका बोध नहीं होता। जाग्रतावस्था में भी ऐसे असंख्य उदाहरण उपलब्ध होते हैं। गायक, वादक, चित्रकार, शिल्पकार, वक्ता, लेखक इत्यादि कलाकार अथवा अभीष्ट कार्य में निमग्न बने हुए स्त्री-पुरुष अज्ञात अवस्था में कई बार आसनों को बदलते रहते हैं। उसी प्रकार उत्तम सा इसलिए अमृतंगमय । और और मत्या ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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