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________________ ० Jain Education International · १०६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड हो चुका है ऐसा मुनि मोह को प्राप्त नहीं होता। जैनाचार्यों को भी यह बात सर्वथा अभीष्ट है, इसलिए वहाँ पंचनमस्कार मन्त्र में आचार्य, उपाध्याय और साधु को महत्व दिया गया है। आजकल भले ही मुद्रित पुस्तकें पढ़कर प्रस्तुत शास्त्रों के ज्ञाता बन जायें, किन्तु गुरुगम्य सम्प्रदायक्रम का ज्ञान न होने पर सफलता नहीं मिल सकती तथा दुराग्रही साधकों को कभी-कभी ऐसा फल भी मिल जाता है कि वे जीवन भर कष्टानुभव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाते । मानव भूलों का पात्र है, जबकि साधनामार्ग असिधारा-तुल्य दुरूह है । अतः दीक्षा लेकर ही आगे बढ़ना चाहिए। दीक्षा एक प्रकार से गुरु द्वारा प्रदत्त अनुग्रह शक्ति है। आचार्य अभिनवगुप्त "तन्त्रालोक" नामक ग्रन्थ में दीक्षा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बताते हुए कहते हैं कि " दीक्षा द्वारा ज्ञान की वास्तविकता दी जाती है और पाशविक बन्धन काट दिये जाते हैं अर्थात् दान और क्षपण-क्षय के आद्याक्षरों से दीक्षा शब्द का निर्माण हुआ है। इसी तरह अन्य तन्त्रग्रन्थों में भी दीक्षा के माहात्म्य का वर्णन उपलब्ध होता है। अतः दीक्षित होकर ही साधनामार्ग में प्रवेश करना श्रेयस्कर है। तान्त्रिक प्रयोग तथा उनका उपयोग कामिक - आगम में तन्त्र की व्याख्या -- “ विपुल अर्थों का विस्तार तन्त्र-मन्त्र द्वारा किया जाता है तथा साधकों का त्राण किया जाता है अतः उसे तन्त्र कहते हैं" ऐसी की गई है। यद्यपि शास्त्रों में तन्त्र के अर्थ शास्त्र, अनुष्ठान, विज्ञान, दर्शन, आचार-पद्धति, सांख्य, न्याय, धर्मशास्त्र, स्मृति आदि किये गये हैं और जैनधर्म में योग को ही तन्त्र कहा गया है, तथापि यहाँ यन्त्रमन्त्रादिसमन्वित एक विशिष्ट साधना मार्ग का नाम तन्त्र माना जाता है । महान् तन्त्रज्ञ नागार्जुन ने अपनी माता नागमती की कृपा से अर्बुदाचल ( आबू पर्वत) पर औषधि विज्ञान को पहिचाना। बाद में पादलिप्त सूरि के पास जाकर आकाशगामिनी विद्या का अध्ययन किया। तब से ही अपने द्वारा संगृहीत सिद्ध-प्रयोगों की पुस्तिका को लिखकर कोई अन्य व्यक्ति इस संग्रह को चुरा न ले इस धारणा से अपनी काँख में ही उसे रखने लगा, जिसे उत्तर-काल में " कक्षपुटी" नाम से सम्बोधित किया गया। इस प्रकार कुछ जैनाचार्यों ने भी तन्त्र साधना की । जांगुलिमन्त्र, औषधिमन्त्र, सर्प और बिच्छू के विषापहार मन्त्र, वशीकरण औषधियाँ, श्वेतार्क, श्वेतगुंजा, अपराजिता, मी स्वेतपुष्णी, शंखपुष्पी आदि वृक्षों के मूल तथा अपराजिता, मदन्ती, मयूरशिखी, सहदेवी, सिवारसिंगी, मार्जारी, सर्पप आदि का प्रयोग, रविपुष्य, होली, दिवाली, नवरात्रि आदि दिनों में लाकर किया जाता है। इनके द्वारा सुखप्रसव, गर्भबाधा, मृतवत्सात्व, काकवन्ध्यादि दोष दूर किये जाते हैं। साथ ही ज्वर– एकाहिक, द्वयहिक, त्रिदिवसीय, चतुर्दिनात्मक भी उपर्युक्त औषध-मूलिकाओं के बाँधने से दूर हो जाते हैं। पीलिया, बोला, नामिलन आदि के लिए भी वैद्यक एवं ग्रामीण प्रक्रिया से उपयोग किया जाता है। एकाक्षिनारियल दक्षिणावर्ती शंख एक नेत्र वाला रुद्राक्ष, दक्षिण गुण्डाबाले गणपति, श्वेतार्क के गणपति जैसी वस्तुओं की सिद्धि के लिए निर्दिष्ट कल्प-विधान का निर्माण भी हमें लौकिक अभिरुचि के अनुरूप तान्त्रिक प्रयोगों की विपुलता से परिचित करवाता है। हम देखते हैं कि भारतवर्ष में जादूगरी, यक्षिणीसाधन, प्रेतसिद्धि, श्मशानसापन, बेताल-सिद्धि परकाय प्रवेश मृत व्यक्ति दर्शन इन्द्रजाल-प्रदर्शन हिप्नोटिज्म, मेस्मेरियम, प्लास्टर आदि आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं का भी तत्र तत्र प्रयोग मिलता ही है, जिनकी गणना भी तन्त्र में ही की जाती है। 1 2 उपसंहार इस प्रकार सभी सम्प्रदायों में प्रचलित तान्त्रिक साधनाओं के सामूहिक पर्यवेक्षण से ज्ञात होता है कि साधना के विभिन्न मार्गों में यह प्रमुख मार्ग है। इसके आश्रय से समुचित विधि का पालन होता है, आत्मबल की प्राप्ति होती है । खण्डित अंगों से की जाने वाली साधना सफल नहीं होती। साधक का आशय उदार होना चाहिए। बुरी भावना से की जाने वाली साधना साधक का अपकार भी करती है। निन्द्यकर्मों से तान्त्रिक साधना नहीं करनी चाहिए । शास्त्र के प्रामाण्य और गुरु में विश्वास ही साधना के सच्चे साधन हैं आदि । अतः हमारी अपेक्षा है कि प्रत्येक साधक 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' गीता के इस वाक्य को दृष्टि में रखकर तान्त्रिक साधना करे । अवश्य सफलता प्राप्त होगी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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