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________________ तान्त्रिक-साधनाएँ : एक पर्यवेक्षण १०५ . - ० ०० (10) ___ इसके साथ ही ग्रामीण और कुछ पुराने विचारकों के मानस में फैली हुई भूत-प्रेतादि बाधा सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं की सच्चाई सामने रखने के लिए प्रचलित अन्यान्य लौकिक परम्पराओं का अनुसन्धान एवं संग्रह तथा मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म आदि का सच्चा रूप-निदर्शन । जैनधर्म और तान्त्रिक साधनाएँ जैनधर्म में शक्ति का मूल केन्द्र आत्मा को माना गया है। आत्मा की अनन्त शक्तियों के साक्षात् जागृत प्रतिनिधि तीर्थंकर हैं । तीर्थंकर की उपासना में ही सम्पूर्ण भौतिक एवं दैविक शक्तियाँ संलग्न हैं। अतएव जैनाचार्यों द्वारा यन्त्र-मन्त्र-साधना के लिए विहित किया गया सम्पूर्ण यन्त्र-मन्त्रविधान, "नमो अरिहंताणं" इस नमस्कारमन्त्र पर निर्भर है। यहाँ अरिहंत का सामान्य अर्थ है अरि अर्थात् शत्रु और हन्ता अर्थात् हनन करने वाला। पूरे मन्त्र वाक्य का अर्थ हुआ "शत्रुओं को समाप्त कर देने वाले परम योद्धा को नमस्कार हो" । इसका अर्थ यह हुआ कि जिसने राग-द्वेष दोनों आवरणकारक दोषों को नष्ट कर, कर्मफल का विध्वंस कर, अनन्त शक्तियों को उपलब्ध कर लिया है, उस अरिहंत को नमस्कार हो । परमात्मा और अरिहंत में अन्तर केवल इतना ही है कि अरिहंत सशरीरी परमात्मा है और सिद्ध परमात्मा अशरीरी हैं । सशरीर होते हुए भी अरिहंत साक्षात् परमात्म-स्वरूप हैं क्योंकि अरिहंत में अनन्तज्ञान-शक्ति, अनन्तदर्शन-शक्ति, अनन्तचारित्र-शक्ति एवं अनन्तबलवीर्य, पराक्रम-शक्ति का पूर्ण जागरण एवं पूर्ण विकास हो जाता है । सामान्य साधक को तो अरिहंत की उपासना मात्र से ही ऋद्धि, सिद्धि विषयक कामना की उपलब्धि तथा भौतिक एवं आध्यात्मिक आकांक्षा की प्राप्ति हो जाती है। ऐसा हम कह सकते हैं कि यन्त्र-मन्त्र उसी परमाराध्य अरिहंत भगवान् के स्वरूपों की पूजामात्र है। जैनधर्म के परम्परागत आचार्यों ने यन्त्र-मन्त्र के क्षेत्र में अपनी महान् उपलब्धियों के बूते पर इस उपासना प्रणाली में इतने शक्तिशाली एवं ऊर्जासम्पन्न बीजों को अन्तनिहित कर दिया है कि जैन यन्त्र-मन्त्रों की साधना के लिए विहित विधि-विधान के मार्ग से साधना करने वाले व्यक्ति को अल्प-समय में ही अपनी साधना की फल-प्राप्ति हो जाती है। जैन श्रमणों की शक्ति-पूजा जैनधर्म में भी शक्ति-पूजा तथा शाक्ततन्त्रों को समुचित स्थान प्राप्त हुआ है। आचार्य हेमचन्द्ररचित "योगशास्त्र" के सातवें और आठवें प्रकाश में धर्मध्यान के अन्तर्गत "पदस्थ" नामक ध्यान में अन्य धर्मानुयायियों के समान ही षट्चक्रवेध की पद्धति के अनुसार वर्णमयी देवता का चिन्तन किया गया है। वहाँ मातृकाध्यान का वर्णन बहुत ही रोचक है तथा अनेक मन्त्रों की परम्परा से शक्तियुक्त आत्मस्वरूप की भावनाओं का विधान दृष्टिगत होता है। जैनमन्त्रों में प्रणव (ॐ), माया (ह्रीं), कामनाबीज (क्ली) आदि बीजाक्षरों की शक्ति जैसी अन्यत्र वर्णित है वैसी ही बतलायी गयी है। केवल प्रधान देवता के रूप में "अरिहंत" की मान्यता है। इसमें पंचनमस्कार-महामन्त्र के पांचों पद लिये गये हैं, तथा श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुसार तो प्रत्येक तीर्थंकर की शासन-देवियाँ चक्रेश्वरी, अजिता, दुरितारि, कालिका, वैरोट्या आदि मानी गयी हैं। धरणेन्द्र-पद्मावती की उपासना तो वस्तुतः शाक्त सम्प्रदायानुकूल ही है। सनातनी उपासकों में जो "श्री विद्याराधना" प्रसिद्ध है और बौद्ध-सम्प्रदाय में जो महत्त्व तारादेवी को प्राप्त है, ठीक वैसी ही मान्यता पद्मावती देवी की जनों में है। कुछ विचारकों का कथन है कि श्री देवी की तारा और पद्मावती उपदेवियाँ हैं। जैन सरस्वती के सोलह विद्याव्यूह मानते हैं जो रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला आदि नामों से प्रसिद्ध हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि जैनधर्मानुयायी शक्ति-पूजा में भी विश्वास करते हैं और वे एक प्रकार से शाक्त माने जा सकते हैं। यहाँ इतना कह देना आवश्यक है कि जैनों में हिन्दुओं के वामाचार अथवा बौद्धों के हीनयान जैसा कोई मार्ग नहीं है। मन्त्रोपासना में गुरु और दीक्षा जब कोई उपासक किसी भी देवी-देवता की उपासना में प्रवृत्त होता है तो उसे गुरु की आवश्यकता होती है और वे गुरु अपने आचार के अनुरूप दीक्षित करते हैं, तभी आराधक की साधना फलवती होती है और यह उचित ही है। आद्य शंकराचार्य ने कहा है-मुनिन व्यामोहं भजति गुरुदीक्षाक्षततमाः"-गुरु-दीक्षा से जिसका अज्ञान नष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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