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________________ Jain Education International १०४ सच्चा उपयोग न्यून मात्रा में ही होता रहा है । सम्भवतः इसी बात को ध्यान में रखकर "बिखरी हुई शक्ति का एकीकरण हो जाने पर उसकी क्रियाशील तेजस्विनी बन जाती है" इस सिद्ध भावना को साकार स्वरूप देते हुए यान्त्रिकों ने वाणी के संवरण को प्राथमिकता दी और बीजमन्त्रों के द्वारा ही समस्त कार्य सिद्ध होने की ओर संकेत किया। उचित निर्देशन पाकर लक्ष लक्ष उपासकों ने एक दो नहीं, गाँव के गाँव और बड़े-बड़े नगरों तक को मन्त्र प्रभाव से विपज्जाल से छुड़ाया है, आपत्तियों के आवरण से प्रकाश में ला बिठाया है, जिसका साक्षी पूर्वकाल है । श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड (३) तन्त्र- क्रिया कुशलता के बिना अच्छी प्रतिभाएँ भी अन्ध, मूक और बधिर की कोटि में स्थिर रहकर विलुप्त हो जाती है। संयोजना शक्ति का लोहा मानने से कौन सिर हिला सकता है। उपर्युक्त दो धारायें भी इस सरस्वती के बिना शून्य सी रहती हैं। यही कारण है कि आचार्यप्रवरों ने इस पर विशेष बल दिया । उन दो धाराओं में इसकी प्रमुखता न रहने पर भी इसके सहयोग की पूर्ण अपेक्षा रहती है। और फिर विज्ञान तो इसमें कूट-कूटकर भरा हुआ है। इसमें भौतिक वस्तुओं का संकलन और उनकी उपादेयता पर पूरा लक्ष्य रहा है और इसके निमित्त भी कई ग्रन्थ समक्ष आये हैं । संग्रह | (४) योग - इस 'त्रिवेणी' में अवगाहन करने की योग्यता प्राप्त करने के लिए "योग" की पूर्ण आवश्यकता है। योग के बिना किसी भी कार्य में सफलता पाने की अभिलाषा करना ख- पुष्प-संचय की तरह निराधार है। इस शास्त्र ने भी भारत में यथेच्छ प्रचार-प्रसार पाया है। इसकी महिमा से विश्व परिचित है। आज भी इसके द्वारा सिद्धिपथ पर समारूढ़ होते हुए कई महापुरुष देखे जाते हैं । (५) स्वर - किसी कार्य का आरम्भ अनुकूल वातावरण में हो, तो वह "अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति" वाली उक्ति का ग्रास नहीं बनता । गतागत का विचार भी साधक के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि योग । बाह्य साधनों से हम भूत, वर्तमान और भविष्य की उच्चावच परिस्थितियों का ज्ञान कर सकते हैं, किन्तु हम जिस देह के द्वारा कार्य करने जा रहे हैं उसकी त्रैकालिक स्थिति अनुकूल है या नहीं, इसका ज्ञान तो "स्वरोदय " से ही हो सकता है । इस विषय को लेकर कई ग्रन्थों का निर्माण हुआ है । इस पंचामृत के पान कर लेने पर आज का अस्त-व्यस्त और त्रस्त मानव अवश्य ही अपनी त्रिविध ताप - नाओं से त्राण पाकर आत्म-कल्याण और लोक कल्याण कर सकता है, इसमें सन्देह को तनिक भी अवकाश नहीं । इन सब उदात्त संकल्पों की सर्वागीण सिद्धि के लिए निम्नलिखित साधना की अपेक्षा है— ( १ ) विश्व के समस्त धर्मों में प्रचलित तान्त्रिकादि परम्पराओं का परिचय । (२) विभिन्न तन्त्रादि शास्त्र एवं अन्य सहयोगी अनेक प्रकाशित-अप्रकाशित ग्रन्थों का एक अभिनव विशाल (३) अप्राप्य एवं विलुप्तप्राय ग्रन्थों की प्राप्ति का प्रयत्न । (४) ताड़पत्रीय, भोजपत्रीय, प्रस्तरलिखित, ताम्रपत्र और वस्त्र पर अथवा बाँस पर लिखे हुए जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थ अथवा एतत् सम्बन्धी साहित्य की प्रतिलिपि - चित्र (फोटो), छायाचित्र (फिल्म) एवं अन्य साधनों द्वारा संरक्षण । उपासनागृह आदि स्थानों पर स्थापित सिद्ध-यन्त्रों के (५) प्रत्येक धर्मों से सम्पर्क साधकर देवालय एक विशाल संग्रह ( म्यूजियम के रूप में) की स्थापना । लिए संग्रह स्वरूप-दर्शन । 1 (६) प्रयोग में आने वाली आलेख्य सामग्री, उपासना-सामग्री एवं धातु, द्रव्य, ग्रन्थ आदि का प्रदर्शन के (७) उपासना के उपयोग में आने वाले यौगिक एवं अन्य चित्रों का निर्माण और मुद्राओं के प्रदर्शन के लिए (८) कोष निर्माण, पत्र- प्रकाशन, अनुसन्धान से प्राप्त ग्रन्थ का सुलभ प्रकाशन, विचार गोष्ठी आयोजन एवं प्रचार-प्रसार के लिए अन्य साधन । (१) सुदूर राष्ट्रों के विद्वानों से सम्पर्क स्थापित कर उचित सहयोग की प्राप्ति । (१०) भारतीय विद्वानों से सहयोग प्राप्ति तथा मार्गदर्शन प्राप्ति । (११) इतिवृत्त, आलेखन, दुरूह ग्रन्थों पर टीका, उपटीका निर्माण तथा विविध भाषाओं में सरल सुबोध अनुवाद | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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