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________________ १५१२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ( पूण्य ) के परित्याग के लिए यहाँ कहा जा रहा है उसीप्रकार उनके सरागसंयम के भी परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि देशवत के समान सरागसंयम भी पुण्यबन्ध का कारण है। यदि कहा जाय कि मुनियों के सरागसंयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है तो होमो, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मुनियों के सरागसंयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होने से उनके मुक्ति गमन के प्रभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है। इसप्रकार इन आर्ष ग्रन्थों से यह सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि के द्वारा किया हुआ सातिशयपुण्य मोक्ष का ही कारण है संसार का कारण नहीं है, किन्तु जो अल्प लेप के भय से सरागसंयम को धारण नहीं करते उनको जिनागम की श्रद्धा नहीं है वे मिथ्यादृष्टि हैं और उनको मोक्ष प्राप्त नहीं होता। मंदकषाय के द्वारा किया गया मिथ्यादृष्टि का निरतिशयपुण्य देवगति का साक्षात् कारण होते हुए भी मख्यतया संसारपरिभ्रमण का कारण है। पार्षग्रन्थों में निरतिशयपुण्य को ही सोने की बेड़ी, संसार का कारण तथा हेय बतलाया गया है, किन्तु कभी-कभी यह निरतिशयपुण्य भी सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण बन जाता है । निरतिशयपुण्य के कारण नीचदेवों में उत्पन्न होकर जब सौधर्म-इंद्रआदि की महाऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दर्शन से संयुक्त संयम के फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्व से रहित द्रव्यसंयम के फल से वाहनादिक नीचदेवों में उत्पन्न हुआ हूँ तब प्रथम सम्यग्दर्शन का ग्रहण देवधिदर्शन निमित्तक होता है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी कहा है वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ गिरइ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ॥ २५॥ (मोक्षपाहुड़) जैसे छाया का कारण तो वृक्षादिक हैं, तिनिकरि छाया कोई बैठे सो सुख पावे । बहुरि आताप का कारण सूर्यमादिक हैं तिनिके निमित्त से प्राताप होय ता विष बैठे सो दुःख पावे । इनमें बड़ा भेद है । तैसे जो व्रत तपादिक द्रव्यसंयम को पाचरे सो पुण्यकरि स्वर्ग का सुख पावे । द्रव्यसंयम को न पाचरे, विषय-कषायादि को सेवै सो पापकरि नरक के दुःख पावे; ऐसे इनमें बड़ा भेद है । निरतिशयपुण्य का फल स्वर्ग में देव होने से भगवान के समवसरण आदिक में जाने का तथा नंदीश्वर द्वीप में पूजन का अवसर मिलता है, जिससे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर अनन्तसंसार का छेदकर अर्धपुद्गलपरावर्तन मात्र संसार की स्थिति कर देता है। इसप्रकार निरतिशय पुण्य भी कभी-कभी परम्परामोक्ष का कारण बन जाता है, किन्तु सातिशयपुण्य तो संसार का कारण नहीं है मोक्ष का कारण है। ऐसा श्री कुन्दकुन्दाचार्य, श्री अमृतचन्द्राचार्य, श्री अकलंकदेव, श्री विद्यानन्वआचार्य, श्री वीरसेन, श्री जिनसेन, श्री देवसेनादि आचार्यों ने स्पष्टरूप से कथन किया है। जो अस्याद्वादी जैनाभासी विद्वान हैं, उनकी दृष्टि में उपर्युक्त महानाचार्यों का कथन मिथ्या है, वे तो समस्त पुण्य को संसार का ही कारण मानते हैं । यहाँ तक कि तेरहवेंगुणस्थान में अरहंतों के भी जो पुण्यास्रव होता है उसको भी वे अस्यावादी संसार का कारण मानते हैं। उनको यह विचार नहीं है कि तत्त्वार्थसार में जो पण्यासव को संसार का कारण कहा है वह कौन से पुण्यास्रव को संसार का कारण कहा है । उनको यह ज्ञान नहीं है कि मनुष्यपर्याय, उत्तमकुल, दीर्घायु, इन्द्रियों की पूर्णता, जिनवाणी का श्रवणतत्त्वरुचि, मुनिदीक्षा आदि उत्तरोत्तर महान् दुर्लभ परमपुण्य से मिलते हैं । अाज पञ्चमकाल में पापप्रवृत्तिवाले जीव तो बहुत हैं, किन्तु पुण्यप्रवृत्तिवाले जीव विरले ही हैं। -जं. ग. 6 फरवरी 1969, पृ. 9-11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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