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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व 1 [ १५११ उत्तमसंहनन, उच्चगोत्र आदि विशिष्ट पुण्यकर्मोदय के बिना आज तक कोई भी जीव मोक्ष नहीं गया और न जा सकता है । अतः मोक्ष के लिये पुण्यकर्म की सहकारिता की परम श्रावश्यकता है । जयधवल जैसे महान् ग्रन्थ के कर्ता श्री जिनसेनाचार्य ने महापुराण में यह कहा है कि अरहंतपद श्रीर निर्वाणपद की प्राप्ति पुण्यकर्म से होती है । पुण्यात् सुरासुरनरोरगभोगसाराः श्रीरायुरप्रमितरूपसमृद्धयो धीः । साम्राज्यमंन्द्रमपुनर्भवभावनिष्ठम्, आर्हन्त्यमन्त्य रहिता खिल सौख्यमग्रयम् ।।१६ / २७२ || पुण्याच्चक्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्रों च दिव्यश्रियं, पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नैःश्रयसीञ्चाश्नुते । पुण्यादित्यसुभृच्छ्रियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनं । तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याज्जिनेन्द्रागमात् ॥ ३० / १२९ ॥ महापुराण इन दोनों श्लोकों में यह बतलाया गया है कि पुण्यकर्म से चक्रवर्ती, इन्द्र आदि की लक्ष्मी तो मिलती ही है, किन्तु अरहंतपद तीर्थंकर की लक्ष्मी तथा निर्वाणपद अर्थात् मोक्षसुख भी पुण्य से मिलता है । सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्खस्स होई हेड जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥ ४०४ ॥ लद्ध जइ चश्म त चिरकय पुष्तेण सिज्झए नियमा । पाविय केवलणाणं जहखाइय संजमं तम्हा सम्मादिट्ठी पुष्णं मोक्खस्स कारणं इय णाऊण गिहत्थो पुण्णं, चायरउ Jain Education International [ महापुराण ] सुद्ध ं ॥ ४२३ ॥ अर्थ- सम्यग्दृष्टि के द्वारा किया हुआ पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं होता है । यदि निदान न किया जाय तो वह पुण्य मोक्ष का ही कारण होता है । चिरकाल के संचित किये हुए पुण्य से यदि जीव चरमशरीरी हुआ तो यथाख्यात - शुद्ध-संयम व केवलज्ञान को पाकर नियम से सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है, क्योंकि सम्यष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण होता है, अतः गृहस्थ को यत्नपूर्वक पुष्य का उपार्जन करते रहना चाहिए । हवई । जत्तेण ॥ ४२४ || भावसंग्रह असुहस्स कारहि य कम्मछक्केहि णिच्च पुण्णस्स कारणाई बंधस्स भएण बट्टे तो । लेच्छं तो ॥ ३९७ ॥ ण मुणइ इय जो पुरिसो जिण कहिय-पयस्थ-णवसरूवं तु । अप्पाणं सुयणमज्झे हासरस य ठाणयं कुणई ॥ ३९८ ॥ भावसंग्रह अर्थ – यह गृहस्थ अशुभकर्म के कारणभूत असि, मसि यदि षट्कर्मों को नित्य करता है । यदि कर्मबन्ध के भय से प ुण्य के कारणों की इच्छा नहीं करता तो वह पुरुष भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए नौ पदार्थों के स्वरूप की श्रद्धा नहीं करता तथा वह प ुरुष अपने को सज्जन पुरुष के मध्य में हँसी का स्थान बनाता है । For Private & Personal Use Only यदि यह कहा जाय कि कर्मबन्धन के इच्छुक देशव्रतियों को मंगल ( पुण्य ) करना युक्त है, किन्तु कर्मों के क्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि पुण्यबन्ध के कारणों के प्रति उन दोनों में कोई विशेषता नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिसप्रकार मुनियों को मंगल www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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